Sumita Sharma

Tragedy Inspirational

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Sumita Sharma

Tragedy Inspirational

अपनों की छाँव

अपनों की छाँव

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तीन भाई और दो बहनों में सबसे छोटा था राघव और अत्यंत कुशाग्र। उसका बचपन गाँव की अमराइयों में बीता था अपने खेत की, पिता सम्पन्न व्यापारी पर उसका प्यार थीं मशीनें। बाहर से जब भारी भरकम दरवाजे को धकेलकर जब बड़े से आँगन में राधा दीदी! कहकर दौड़ता हुआ घुसता, तो अक्सर उसके दोनों हाथ भरे होते। दोपहर में खेत से तोड़कर लाई गई ताज़ी ताज़ी धनिया और पुदीना की गड्डियों और कैरी (कच्चे आम) से।

खुशबू उड़ाती चटनी और ताज़ी मूली के साथ माँ के हाथ के तरह तरह के अचार के साथ चूल्हे पर सेंकी रोटी से पेट भर के भोजन करता। फिर आँगन में अपनी किताबों के साथ पेड़ के नीचे खाट पर बैठ के दिल लगा कर पड़ता, बड़े भाई भी जब शहर जाते तो उसकी पढ़ाई में कोई कमी न रहे इसका पूरा ख्याल रखते। बस शाम को वो दद्दा के पास दुकान पर जाता और शाम ढले साईकिल पर गाय के लिए चारा रखे उनके पीछे पीछे पूरे दिन का हाल बतलाता।

दोनों बड़े भाई जब भी साथ खाने बैठते तो जब भी मकई की रोटी और ढेर सारे गाय के घी के साथ अम्मा दुलार से दाल कटोरी में परोसती तो अक्सर अपनी थाली में से छोटे भाई के लिए ज़्यादा रखवाते कि," हमारा राघव खूब मेहनत से पड़ता है उसे ज़्यादा रखो न अम्मा। " राघव अक्सर अम्मा के सख़्त हाथों को लाड़ से सहलाते हुए उनकी गोद मे सिर रख के कहता, "अम्मा !जब बड़ा आदमी बनूँगा तो तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जाएंगे।" बहन राधा भी अपने भाई के लिए अम्मा के साथ अक्सर मंदिर की परिक्रमा करती देवी की मन्नत की चुनरी पीपल के पेड़ में बाँधती। परीक्षा के समय सिर में तेल मालिश भी करती और उसके साथ प्रायोगिक परीक्षा की तैयारियों में भी लगती।


सुबह सवेरे देशी घी के लड्डू, मठरी और आचार के साथ अपने हिस्से की खोये की बर्फ़ी भी रख देती लाड़ले भाई के वास्ते। उधर अम्मा ताज़े मट्ठे साथ माखन का बड़ा सा टुकड़ा जोड़ देतीं गिलास में।

जब इंजीनियरिंग की परीक्षा में अव्वल आया तो बड़ा चीफ़ इंजीनियर बनने निकल गया शहर की ओर,और सारे दुलार छूट गए बहुत ही पीछे।

बाहर निकल कर महानगर में सफल सरकारी सिविल इंजीनियर बन के बड़ा नाम कमाया राघव ने।अब तो उसके लिये एक से बढ़कर एक रिश्ते आने लगे और महानगर की सुयोग्य सम्पन्न घर की अर्चना उसकी जीवन साथी बन गयी।

अब दृश्य कुछ दूसरा था, अर्चना तो दो दिन भी गाँव में रुकना पसन्द न करती घरवालों के निश्छल प्यार दुलार उसे बनावटी लगता और यदि राघव उनके लिए कुछ करता तो उसे ऐसा प्रतीत होता कि जैसे सबकी इच्छा बस उसके पति के पैसों पर ही है।

जहाँ वह अपने परिवार पर उनके स्तर के मुताबिक खर्च करती वहीँ ससुराल परिवार पर बेहद सधे तरीके और उनके रहन सहन के अनुसार।

अक्सर इतना उपहास बनाती सभी रिश्तेदारों के रहन सहन और बोलचाल के तरीकों का कि अब वो राघव को भी पिछड़े महसूस होने लगे। राघव तो स्वयँ को उसके अनुसार काफ़ी बदल भी चुका था पर अर्चना उसे भी अपने ही रंग में रंगने पर पूरे तौर पर उतारू हो रही थी।

न तो अर्चना रुकती और न बच्चे रुकने को तैयार होते वो भी बस ननिहाल के ही रिश्तेदारों और सुविधाओं के आगे घर को नगण्य समझते और कमियों को ही ऊपर रखते। अब गाँव का सीधा-सरल, सम्पन्न और खाता पीता परिवार दोनों को ही स्तरहीन लगने लगा। पहले तो राघव का सपरिवार गर्मियों की छुट्टियों व त्योहारों पर ही घर आना होता था अब वह भी धीरे,धीरे बन्द हो गया।


 दद्दा की बीमारी पर भी बस पैसे भेज देता क्योंकि समय न होने का बहाना तैयार रहता था और उसके घर किसी भी भाई को जाना पसन्द न था। उसके उच्च सुविधा सम्पन्न घर में जो भी आता वह सँकोच से सिमटा रहता ख़ुद में ही।

क्योंकि न तो राघव पास बैठता और न उसके बच्चे, शहर के ऊँचे तौर तरीके उन सबकी समझ से बाहर थे अक्सर झेंपते रहते।

गाँव में जिन सुविधाओं और उपलब्धियों का वो सब सब बढ़ चढ़ के बखान करते उन वस्तुओं को छूने में भी उन्हें डर लगता क्योंकि अक्सर अर्चना और उसके बच्चे बात-चीत से ही सही पर नीचा दिखाने में कोई कसर न छोड़ते।

अगर कभी राघव अपनी पसंद का कुछ अपने तरीके से खाना चाहता तो अर्चना उसे हमेशा ताना देते हुए कहती, "तुम इतने बड़े पद पर हो अब तो गाँव की आदतें छोड़ो,बन्दर कितना भी सिखाओ पर गुलाटी मारना नहीं छोड़ता।"

राघव कभी कभी चिड़चिड़ा कर कह भी देता,"कि मुझे घर में तो अपने हिसाब से जीने दो, पर बच्चों की भी अपनी माँ के साथ व्यंग्यात्मक हँसी और चुटीली बातें उसे खुद में समेटने लगीं थीं। एक कवच सा बन गया था उसके चारों ओर सबकी खुशी के लिए खुद की आदतों को समेट कर बस उन्ही के लिए जीने लगा।

कुछ बहुत अच्छा चल रहा था बस दबाव था तो सिर्फ स्टैण्डर्ड बढ़ाने और ज्यादा अमीरी का। बच्चे पढ़ने के लिए बाहर चले गए और पत्नी अपनी किटी और हाईफाई दिनचर्या में रम गयी। अपने मन की बात कहने को कोई मिलता ही न। क्योंकि किसी को रुतबा दिखाना था तो किसी का देखना था पर कोई भी ऐसा न मिलता जो दिल की बात बाँट सके।


उस हाईटेक कंकरीट के जँगल में राघव बाबू धीरे धीरे गुमसुम फिर मौन हो गए। हँसना बोलना तो दूर की कौड़ी हो गया। धीरे धीरे    

स्वभाव क्रोधी हुआ फिर थोड़ा हिंसक अब तो अर्चना को भी चिंता होने लगी। घबरा कर उसने अपने भाई को ख़बर की तो उन्होंने उसे उसका पारिवारिक मामला बताते हुए उसे पागलों के डॉक्टर को दिखाने की सलाह दे डाली,"कि तुम अपने घरवालों को बुला कर क्यो नहीं बात करतीं।

उसकी समझ के बाहर था अपनों और मिलने वालों का यह विचित्र सा बर्ताव, मरता क्या न करता।

अक्सर जब वो राघव को घर के लिए कुछ करने से रोकती तो वह उसे टोकते हुए कहता,"तुम औरतों की यही आदत ख़राब लगती है मुझे कभी भी ज़रूरत पड़े तो यही रिश्ते ही दौड़ते हैं साथ लिविंग स्टैण्डर्ड नहीं।"

अर्चना के सिर्फ शाम की फोन करने मात्र से ही दोनों बड़े भाई अगले ही दिन राघव के पास आ गए। उनके साथ बड़ी जेठानी भी बहुत सारी घर की बनी राघव की पसन्द की चीजें लाई थीं। उसकी बीमारी डॉक्टर ने बताई डिप्रेशन, बस दवाई खिलाओ और सोने दो और मरीज़ के साथ बेहद स्नेह का व्यवहार करने की सलाह भी दी।  

उन्होंने साथ ही यह सलाह भी दी कि थोड़ा बाहर भी घुमाइये फ़िराइये। मनपसन्द माहौल में दो चार लोगों में बोलें बताएंगे तो पहले जैसे हो जाएं शायद।

अर्चना को भी बात जँच गयी और उसने सोचा कि क्यो न गाँव ही ले चलूँ इन्हें। उसने जेठ जी से हिचकते हुए ये बात कही वो बेहद हर्ष भरे स्वर में बोले, "बहू तुमने तो मेरे मुँह की बात छीन ली जैसे आज तैयारी कर लो सुबह चल देंगे घर।" जैसे-जैसे कार गाँव की तरफ बढ़ रही थी राघव की भाव भंगिमाओं में थोड़ा परिवर्तन लगने लगा।


दरवाज़े पर तख्त पर बैठे अम्मा दद्दा की तो उम्र सबको साथ देख कर जैसे बीस वर्ष पीछे हो गयी। अम्मा दौड़कर अंदर गयीं और घर के बने पेड़े और सुराही का ठंडा पानी लेकर बोलीं, ले मुन्ना जी भर के खा। 

कटोरी में भरकर अपने हाथों से राघव के सिर में तेल लगाने लगीं। शाम को सालों बाद सब साथ मे खाने बैठे। भाभियाँ भी रोज़ पूछ पूछ कर ही मन की चीज़ें बनातीं। इस बार अर्चना ने भी अपने पति को सिर्फ मुन्ना ही बना रहने दिया अपना पति इंजीनियर राघव नहीं।

माँ बाप की गोद, बचपन की यादें भाइयों और दोस्तों के साथ ने वो जादू किया कि धीरे धीरे ज़िन्दगी की ओर राघव मुड़ने लगा।

भैया और बाबू के साथ खेत की सुबह की सैर होती मोर्निंग वॉक नहीं। अम्मा के हाथों के बने पसंद के व्यंजन होते, रूखा सलाद नहीं और टोस्ट या ब्रेड नहीं। रोज़ भतीजे पैरों में तेल भी लगाते।उन सब की अपने प्रति इतनी चिंता और भागदौड़ देख अर्चना को अपने ऊपर बहुत ही ग्लानि महसूस होती कि कभी मैंने इन सबके साथ अच्छा बर्ताव नही किया।

उनकी परवाह असली थी, दिखावटी नहीं अब राघव कभी कभी ठहाके भी लगाने लगा था।उसका अवसाद का कवच टूटने लगा था और पहले वाला राघव उभरने लगा था।

अब अर्चना को भी समझ आने लगी थी अपनों के साथ का महत्व और बनावटी दुनिया का अन्तर। शायद ये राघव को उसकी जड़ों से काटने का दुष्परिणाम ही था।

बहनें भी अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकालकर अपने भाई का हालचाल लेने आयीं। जिन्हें वह लालची समझती थी राधा तो आते ही भाई के लिए ताज़ी चटनी पीसने बैठ गयी।


रात को छत पर चलते सबके बचपन के किस्से और अम्मा दद्दा के डाँट, मार की कहानियों के दौर अब तक राघव बहुत खुशमिजाज हो चुका था पहले से। अर्चना ने डॉक्टर को धन्यवाद देते हुए कहा, "कि चाचीजी आपकी बात का तो जादू सा असर हुआ इन पर।"

उन्होंने हँसते हुए कहा, "मैडम ये जादू नहीं परिवार के साथ और अपनों के हाथ का असर है। पहले लोग एक साथ परिवार में मिलकर बैठते थे और अपने सुख दुःख आपस मे बाँट लेते थे।

उन्हीं में से कोई न कोई हल भी निकाल देता था,अब ये सब परिवार सिमटने के कारण खत्म हो गया और काउंसलर की रोजी रोटी बढ़ गयी।अब आदमी अपने मन की किसी से कह ही नहीँ पाता।क्योंकि दूसरे की मज़ाक उड़ाता है और अपनी न बने इसकी कोशिश में लगा रहता है। तो कहने सुनने वाले तो हमने खुद ही पीछे छोड़ दिये इस तरक्की की अंधी दौड़ में।

जी डॉक्टर, "अब मैंने भी तय कर लिया है कि पहले की तरह तीज त्यौहार और छुट्टियों को परिवार के साथ बिताऊंगी सोसायटी में नहीं।"

महीने भर बाद राघव और अर्चना शहर वापस लौट रहे थे, पहली बार उसे ससुराल से जाने में रोना आ रहा था।

"अम्मा अबकी बार जल्दी आ जाऊँगी, वो गले लग कर बोली।

"हाँ बिटिया.. इससे घर मे लक्ष्मी भी आती है ख़ुशियों के साथ",उन्होंने आशीर्वाद दे कर कहा।

वो कैसे? अर्चना ने पूछा।

अरी ! जो इलाज़ डॉक्टर पैसा लेके करे हैं वो समय। अपने घर परिवार में खर्च करो तो ख़ुशियाँ मुफ्त में मिलती हैं।

जी सच कहा आपने,वो मुस्कुराते हुए बोली।


कार में हँसते मुस्कुराते राघव को देख उसे बहुत तसल्ली मिल रही थी। 

स्टैण्डर्ड की आड़ में पति को उसकी जड़ों से काटने का भयावह परिणाम उसकी स्वार्थी सोच को हिला चुका था। कभी भी, कोई भी रिश्ता हो उसे उसके हिस्से का खुला आसमान ज़रूर देना चाहिए, न कि बंदिशों का पिंजरा।



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