डिज़ायनर
डिज़ायनर
पूरे शहर में क्या देश की भी किसी ख़बर में नमक नहीं बचा था। धरती भर चुकी थी डिजायनर बच्चों से जिनके लिए माँ बाप जन्म के पहले से ही एक बड़ी रक़म चुकाते चले आ रहे थे।
संस्थान में बड़े बड़े चेम्बर थे वैज्ञानिकों और ज्योतिषियों के जो मोटी रकम वसूलते सिर्फ मुहूर्त बताने और बच्चे में मनपसंद जीन्स डालने के लिए।
वहाँ बड़े बड़े लोग भी आते और स्पर्म डोनेशन के बदले में बड़ी रक़म पाते मनचाही औलाद का जुनून सबके सर चढ़कर बोल रहा था और इंसानियत दूर की कौड़ी बन गयी थी।
किसी की भी रुचि साधारण और सरल सन्तान के लिए नहीं बची थी और न जीवन मे कोई संवेग बचे थे। बस सफलता का खुमार और नाकामी का ग़ुबार बाकी बचा था।
ऐसे में गुलज़ार थे तो बस वृद्धाश्रम वो भी नाकाम बुजुर्गों से जो अब तन मन धन से खाली थे। रोज़ भगवान के आगे रोते की क्या कमी कर दी हमने।
तब तक एक संवेदनशील युवक से जो उनके दुःख बाँट लेता एक बुज़ुर्ग ने पूछा कि तुम्हारे सँस्कार बहुत भले हैं इस शहर के नहीं लगते।
वो मुस्कुरा कर बोला किसान का बेटा हूँ इसलिए आगे नहीं बढ़ पाया।
अब वो सूनी आँखे छलछला उठीं, जिन्हें उनके डिज़ाइनर नौनिहालों ने बुढ़ापा भी डिज़ाइनर ही लौटाया था।
