अपना आशियाना पार्ट 1
अपना आशियाना पार्ट 1
प्रिय आकृति,
जब मैं तुमसे पहली बार मिली थी, तुम ज़िन्दगी के सन्नाटे के बीच, दीवारों के वियावान से टकरा कर अपने अकेलेपन के चीत्कार को हवाओं में सुन रही थी, कोई नहीं था पास....स्मृतियों के सिवा !
ज़िन्दगी के उत्तरार्ध में सभी अपनी स्मृतियों की रंगशाला में अपना-अपना पार्ट याद करते हैं।
ये अकेलापन प्रशनचिन्ह सौंपता है ? क्या प्रयोग करने और जीने को दो ज़िन्दगी नहीं मिल सकती ?
तुम फ्लैश बैक में मुझे अपने लड़कपन में ले जाती हो, तुम्हारे व्यक्तित्व के कई आयाम खुलते हैं, मुझे समझ नहीं आता कि मैं किस आकृति से मिलूँ।
तुम्हारे ज़िन्दगी के इस फ्लैश बेक में कुछ ना कुछ बदल जाता है, तुम्हारी ज़िन्दगी में वैसे ही इतने सारे शैड्स है, कभी दादा की दुलारी अपनी ज़िद पूरी करती आकृति, कभी दादा-दादी के बिना निहत्थी हो गई आकृति, कभी शादी के सपने देखती, तो कभी अपने हाथों से उसे तोड़ती....... शादी से इंकार करती आकृति....!
नए शहर और नए लोगों में अपने आप को आकार देती, सब कुछ छोड़कर ,गांव की नोकरी, गांव की नई पीढ़ी को तराशती आकृति....!
तुम्हारी रचनाकार के लिए ये रेखांकन योग्य था कि तुमने "अपनी छत" तलाशी, शादी के भरोसे को तोड़ने वाले अपने भावी पति को इंकार कर ,पिता की छत से "अपना आशियाना" बनाया स्त्री की 'अपनी छत' ,अपना पैसा उसे ताक़त सौंपता, वरना यह रिकार्ड तो हर घर मेंं चौबीसों घंटे बजता रहता है, निकल जा मेरे घर से लेकिन रुको जरा मेरे वक़्त की यात्रा करोगी .........!