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अनुगूँज

अनुगूँज

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"जब बोलने का पता न हो तो, बोला मत करो...अपनी ये गँवारू सोच अपने पास ही रखो, प्रचार की जरूरत नहीं...हमारे साथ नहीं खटाओगी अब ...तुम अब वहीं गाँव में रहो..।"

कह- कह के विश्वास छोड़ गया था शगुन को गाँव में ताऊ-चाचों के भरोसे।

बरसों बरस बीत गए, विश्वास गाँव लौट आया था, बीवी गुजर चुकी थी, बच्चे महानगरों में सेट थे।

माँ विश्वास को याद कर-कर के दिमागी संतुलन खो बैठी थी। कभी एकदम सामान्य लगती तो अगले ही पल आले-बाले गाने लगती। "ना-ना बेटा अब कुछ ना बोलूँगी .... किसी के सामने भी नहीं आऊँगी ........., नन्नू को गोद में खिलाने को बहुत जी करता है ...ले चल ना मुझे अपने साथ ....फिर अचानक से इधर-उधर घूम के आवाजें लगाने लगती...."विशु ! ओ विशु.......कहाँ छिप गया रे तू ? इस बावलेपन में भी शगुन की दुनिया विश्वास के चारों ओर ही घूमती थी।

जब शगुन प्यार से विशु-विशु पुकारती विश्वास का दिल चीत्कार उठता....वो बार- बार खुद को धिक्कारता.... और बस...आँसू बहाता रहता ...


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