अनुगूँज
अनुगूँज
दर्दनाक हादसे के बाद लोगों पर से विश्वास ही उठ चला था तभी चोटिल तन व जख़्मी मन को शीतलता पहुँचाने के उद्देश्य से, एकान्तवास हेतु भटकते हुए, जहाँ कोई अन्तर्मन में अनधिकृत प्रवेश न कर सके ऐसे एक निर्जन वन में प्रवेश कर गयी। अन्दर घने अंधकार के वीराने में वेदना बह निकली। मन हल्का होने के बाद धुंध छंटने पर सामने बहुत खूबसूरत दृश्य दिखाई दिया।
मेरे दुख का अविरल दरिया बहते देख लगा निष्प्राण वृक्ष में जान आ गयी हो और एक अनुगूँज सुनाई दी। "समाज के कुछ वहशी दरिंदे रातों रात मुझे चोट पहुँचा बेदर्दी से काट मेरी संवेदनाओं को जड़ से समाप्त कर मेरा अस्तित्व ही नकार कर मृत प्राय बना चले गये थे कि तभी एक संवेदनशील इंसान को मुझ में जीवन की अनुभूति हुई और उसने अपनी परिकल्पना से मुझ को इस रूप में ढाल दिया। मुझे यह बताते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि कभी जो लोग मुझे वितृष्णा से देखते हुए मुँह फेर लेते थे, आज मेरे तराशे हुये रूप को देख पलक झपकाना ही भूल जाते हैं। उन स्वार्थी इंसानों की हरकतें याद कर आज भी जहाँ मेरा दिल जार जार हो रो उठता है वहीं संवेदनशील मूर्तिकार के सामने सिर श्रद्धा से झुक जाता है।" मेरे भटकते कदमों को राह मिल चुकी थी और अब मैं नई ऊर्जा के साथ वापस लौट रही थी।