अन्तर्मन
अन्तर्मन
अपने अन्तर्मन की पुकार पर लिये गये फ़ैसले से वह आज बहुत सुकून महसूस कर रही थी, लगता था दिमाग से मनों बोझ हट गया हो। अब वह पुर सुकून से आँख बन्द करके आराम कुर्सी पर अधलेटी हो बैठ कर हौले हौले विचारों के झूले पर झूलनें गयी। बीते समय की सभी घटनायें चलचित्र की भाँति सृमृतिपटल पर छाने लगीं। वह अतीत की गलियों में चलते हुये अचानक उस बड़े से टीक की लकड़ी से बने दरवाजे की चौखट पर जा पँहुची जहाँ कभी गाजे बाजे व स्वागत सत्कार के साथ उसने बड़े मान से प्रवेश किया था और एक दिन उसी दरवाजे की चौखट से अपना मान बचा कर उसे चोरों की तरह रात्रि बेला में भागना पड़ा था। जब पति के बाहर जानें पर देवर ने उसके बच्चे को बन्धक बना उसकी अस्मत से खिलवाड़ करना चाहा था, किससे कहती वह अपना दुख कोई यक़ीन ही नहीं करता।
पर अब जब अकेले जीवन बिताते हुये वह अपनी योग्यता के बल पर ऊँचा मुक़ाम पा चुकी है। उसी पति नामक जीव की बहन के द्वारा आये पत्र ने उसे फिर से उन्हीं यादों के गलियारों मे जाने को विवश कर दिया आज उसकी सन्तान को उसकी जरूरत थी। गलत संगति में पड़ने के कारण उसकी किडनी फ़ेल हो गयी थी और उसे एक स्वस्थ किडनी की आवश्यकता थी। वह किडनी माँ की हो इससे बेहतर क्या हो सकता था।अपनी किडनी देकर उसने अपनी सन्तान को आज फिर से पा लिया था। क्या हुआ जो आज उसके शरीर में एक ही किडनी रह गयी थी। आखिर इसी माध्यम से चाहे माँ बेटे फिर से मिल गये थे। तभी अस्पताल के कमरे के अन्दर से कराहते हुये “माँ”के मन्द स्वर ने उसकी तन्द्रा भंग कर दी और वह उठ कर कमरे में बेटे के बिस्तर की ओर चल दी।