अंतिम इच्छा का संवर्धन

अंतिम इच्छा का संवर्धन

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आज की चिकित्सा व्यवस्था, अच्छे अच्छों की जेब फार दे। चाहे वो पैसा वाले रतन चाचा हो या साधारण हस्ती वाली रुखिया 

चाची। शायद ऐसे में वही होगा जो रुखिया चाची का हुआ। चलो जो भी हुआ आखिर रुखिया चाची की अंतिम इच्छा पूरी हो ही गई। पर इस तरह पूरी होगी ये कभी सोचा न था। 


रुखिया चाची केवल नाम की रुखिया थी। स्वभाव से तो वह मुहल्ला की जान थी। साधारण पढ़ी-लिखी। पर उच्च शिक्षा प्राप्त और देहाती दादी-नानी दोनों के गुणों से युक्त। समय-समय पर अपने गुणों का प्रदर्शन कर किसी का भी भला करने में पीछे नहीं रहती। हालाकि अपने इस गुण के कारण उनके लिए लोग अकसर उलटी-सीधी बातें करते रहते। चाची को किसी की बात से कोई असर नहीं होता। 

 

समय के साथ चाचा बिछुड़ गए संसार से और चाची बड़े घर को छोड़ बच्चों के साथ एक तीन कमरे में मकान जिसे फ्लैट का नाम दिया गया उसमें सिमट गई। पूरे घर-आँगन और बड़े फुलवारी वाले सजे हाता की मालकिन एक कमरे में खुश हो गई। बालकनी में तुलसी के एक पौधे के साथ दो-चार अन्य फूल लगा उनकी देखभाल में मगन रहने लगी। अब अपना ज्ञान कागज कलम के सहारे छोड़ दी। समय के साथ एक दिन पोती ने उनके ज्ञान को पुस्तक का रूप दे दिया -‘दादी माँ के ज्ञानी नुस्खे।


 चाची अब फ्लैट में भी मशहूर हो गई। हर उम्र के लोग उनसे मिलने आते और तरह-तरह की ज्ञान की बातें कर कुछ सीख कर जाते। 


हंसमुख चाची शरीर से थोड़ी अस्वस्थ्य थी। बीमारी कोई जटिल नहीं होती पर हमेशा किसी न किसी रूप में चाची से चिपकी रहती। चाचा डॉक्टर थे अतः चाची को डॉक्टर के यहाँ दौड़ नहीं लगानी पड़ती। धीरे-धीरे अपनी बीमारी और चाचा की दवा ने चाची को भी आधा डॉक्टर बना दिया। उसमें जब उनके घरेलू नुस्खों का समावेश होने लगा तो चाची चाचा से भी अच्छी डॉक्टर हो गई। बची- खुची कमी गूगल महाराज से पूरे होने लगे।

 

एक बार चाची पेचिस और जोड़ों के दर्द से काफी दिनों से परेशान चल रही थी। हींग अजवाइन काला नमक में और कुछ-कुछ मिलाकर पेट का इलाज करती अजवाइन की पोटली से जोड़ों को सेंकती रहती। ऐसे में भी हँसते रहती। एक दिन हँसते हुए कही- “मैं तो सदा डॉक्टर साहब से कहती रही मेरे शरीर को मेडिकल के बच्चों को दान में दे दो। तरह-तरह के बीमारियों से ग्रसित शरीर भी कैसे सुचारु रूप से चल रहा है इस पर रिसर्च करें तो आगे अच्छी-अच्छी दवाइयाँ बनेगी जिससे लोगों को कम कष्ट झेलना पड़ेगा। देखो न डॉक्टर साहब कहते हैं शरीर दान मरने के बाद ही होता है। अस्पताल में भर्ती मरीज पर ही डॉक्टर अपना रिसर्च करते हैं। अब मैं इतने रोगों से ग्रस्त हूँ पर ऐसी अवस्था में नहीं पहुँच जाती कि अस्पताल में भर्ती करना पड़े।”


एक दिन चाची बड़े मजे से कहने लगी - “ जानती हो आज फिर पेचिस मुझसे मिलने आ गई और घुटना दर्द बार-बार शौच जाकर उसका स्वागत करने देने में बाधक बन रहा था। मैं अजवाइन वाले तेल से घुटना की मालिस कर रही थी तो पोती आकर कहती है-’दादी कुछ मत करो। पस्त हो जाओगी तो अस्पताल में भर्ती कर देंगे। तुम्हारे शरीर पर डॉक्टर को रिसर्च का मौका मिल जाएगा। तुम्हारी इच्छा पूरी हो जाएगी।’ अब बताओ हमारी इच्छा को ये लोग मजाक बनाते हैं।” 


समय की मार से कोई नहीं बचा। लाख जतन से रहने वाली चाची को भी एक दिन अस्पताल का साथ निभाना पड़ा। विभिन्न रोगों से ग्रसित शरीर का क्रिया-कलाप डॉक्टरों के लिए एक कौतूहल का विषय था। डॉक्टर नित्य नए रिसर्च करते और चाची के बच्चे पैसा पानी की तरह बहाते जाते। चाची की बड़ी हवेली जो अब तक मासिक आमदनी की श्रोत थी एक मुश्त पैसे के लिए बिक गई। बच्चे चाची को कुछ बताते नहीं पर पढ़ी-लिखी होने के कारण उन्हें अपनी बीमारी पर खर्च हो रहे पैसे का आभास तो था। वो हर दिन कहती इस प्राइवेट हॉस्पिटल से हटा कर सरकारी में ले चलो। ये लोग नई-नई दवा के नाम पर लूट रहें हैं। पर बच्चे अपने कर्तव्य का निर्वहन बिना कुछ सोचे हुए किए जा रहे थे। 


 माँ की समुचित सेवा के लिए बहू ने नौकरी का परित्याग कर दिया। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया। चाची कभी वेंटीलेटर पर तो कभी वापस आ आई.सी.यू. में विश्राम करतीे। वेंटिलेटर और आई.सी.यू. पर ऐसे आती-जाती रहती मानो कभी कमरा तो कभी बरामदा में दिल बहला रहीं हों।

 

एक दो दिन करते-करते पूरा माह हो गया। चाची के साथ सभी की कमर टूट गई।

 

एक दिन सुनने में आया हार कर बच्चे उन्हें सरकारी अस्पताल में भर्ती कर दिए। पड़ोसी अपना धर्म निभाने के लिए अस्पताल का पता पूछने जब उनके घर गए तो घर में ताला लटका पाया। कुछ दिनों के बाद नए पड़ोसी किराएदार के रुप में पहुँचे। मकानमालिक और उनकी माँ का कोई पता नहीं चला।


एकाएक एक दिन पेपर में न्यूज़ पढ़ी - “ सरकारी अस्पताल में मृत वृद्धा का कोई वारिस नहीं। दो दिनों तक वृद्धा के मृत शरीर को परिजन की आस में रखा गया फिर शरीर को मेडिकल कॉलेज भेज दिया गया।”


नीचे एक दूसरे कॉलम में वृद्धा की तस्वीर और उस नर्स का बयान था जिसने उसे अस्पताल में पहली बार देखा और भर्ती किया। तस्वीर में वृद्धा का चेहरा झुर्रियों से भरा और बीमारी से झुलसा था जिससे विशेष पहचान नहीं की जा सकती थी। उसके पास पड़ी पोटली से एक पुस्तक झांक रही थी - “दादी माँ के ज्ञानी नुस्खे” जिस पर रुखिया चाची का दमकता चेहरा व्याप्त था। 


नर्स ने बयान में कहा - “सात दिन पहले यह वृद्धा इसी पोटली पर सर रख अस्पताल के काउंटर के खुलने के इंतजार में वहीं पड़ी थी। जब मैंने उसे जगाया और पूछा क्या बात है तो धीरे से अपनी कमजोर आंखों को खोल कर कहा - ‘वो सब लूट रहे थे। बोटी नोच रहे थे। मैं किसी तरह बच कर भाग निकली।’ और कुछ कह रही थी जो अस्पष्ट था। फिर वो बेहोश हो गई। भर्ती कर उसका इलाज चल रहा था। जब कभी होश में आती तो कहती बेटा आ रहा है। एक दिन कही मर जाएँगे तो मेरा शरीर दान कर देना । बच्चे पढ़ेंगे। हमेशा बात अधूरी ही कर पाती।


 तार जोड़ने बैठी तो याद आया लगभग सात दिन पहले का ही न्यूज़ - शहर के नामी अस्पताल के आई.सी. यू. वार्ड से एक वृद्ध मरीज बिना पैसा चुकाए फरार। परिजन का भी पता नहीं।

 

इस घटना के एक दो दिन बाद गुमशुदा में एक रिपॉर्ट मेरी अठत्तर वर्षीय माँ गायब हैं। पता बताने वाले को इनाम दिया जाएगा। पता के तौर पर केवल मोबाइल नम्बर दर्ज था।


सारी घटनाओं को मिलाने के बाद सोचने को विवश हो जाती हूँ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि पैसा के अभाव की जानकारी होते ही चाची किसी तरह प्राइवेट अस्पताल के चंगुल से निकल सरकारी अस्पताल इस आस में पहुँच गई कि बच्चे उन्हें ढूंढ लेंगे। नहीं मिलने पर वर्षों की अधूरी आस कि मेरा शरीर किसी की पढ़ाई के काम आए, पूरा हो जाएगा। पर बच्चे किसी को बिना कुछ बताए घर छोड़ क्यों चले गए ..? पैसे का अभाव या कुछ सोची समझी चाल ..?

         


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