अन्नदाता और विधाता
अन्नदाता और विधाता


विष्णु प्रसाद पकी फसल और लहराते खेतों को देख कर, झूमते हुए मन ही मन गुनगुनाता है। मेरी धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती---। मोटे-मोटे दानों से भरी गेहूँ की बालियों को देख कर खुशी के अतिरेक में डूबा, अभी नौ महीने पहले सड़क दुर्घटना में हुई जवान बेटे की मौत का ग़म भूल जाता है। नाचता-झूमता घर आता है। आँगन में खेलते हुए शुभम तथा अवनी पोता-पोती दोनों को अपने आगोश में भरते हुए, भगवान का शुक्रिया अदा करता है। चलो बच्चों के भाग से इस बार पैदावार चार गुना ज्यादा होगी। हम कौन होते हैं किसी को खिलाने वाले, सब अपना-अपना भाग खुद लेकर आते हैं। पत्नी भगवानी और बहू को खुशखबरी सुना कर वह इत्मीनान से खाना खाकर बेफिक्री की चादर ओढ़ कर सो जाता है । पर यह क्या---? अचानक आसमाँ काले-काले बादलों से घिर जाता है तथा बिजली की भयंकर गर्जना उसके सपनों को चकनाचूर करने को आमादा थी। बारिश के साथ ही मोटे-मोटे ओले गिरने शुरू हो जाते हैं। वह अपना अंगोछा उठा कर, पागलों की तरह बदहवास खेतों की ओर दौड़ पड़ता है। फसल पर अपना अंगोछा फैला कर तथा स्वयं भी चौड़ा होकर रक्षक मुद्रा में खड़ा हो जाता है, जैसे पूरे खेत पर फैलाने वाला, रक्षा कवच खपरैल हो। इस बात से बेपरवाह कि मोटे-मोटे ओले उसके शरीर को लहूलुहान करके तथा अंगोछे को फाड़ कर कब से खेतों पर कहर ढाह कर जा चुके थे। ओलों की असहनीय मार से उसका रक्षा कवच खपरैल रूपी शरीर धड़ाम से, हमेशा के लिए फसलों पर ही गिर जाता है। ओले भी अस्तित्व विहीन होकर इस तरह से नज़रे चुरा रहे थे, जैसे धरती का अन्नदाता और विधाता आपस में---।