अनमोल लम्हे ,,,
अनमोल लम्हे ,,,
अपने बड़े पिता जी जिन्हें मैं बाबा कहती थी, उनकी बात करूँगी। मैं क़रीबन 7 साल गाँव में रही हूँ। बाबा की शादी नहीं हुई थी ।
बांद्रा में उनकी ख़ुद की दुकान थी, जब ज़रूरत पड़ी तो बाबूजी और हम सब यहाँ रुक गए और वे दुकान बेच कर गाँव चले गए।
फिर ऐसी परिस्थिति बनी की माँ को भी जाना पड़ा मुझे और मेरे बड़े भाई को लेकर गाँव।
मेरी 10वीं की परीक्षा थी, तो देर रात तक पढ़ती थी, अपनी क्लास में कुछ तेज़ मानी जाती थी तो घर और स्कूल वालों को उम्मीद जग गई थी कि नाम रोशन करूँगी।
पर उस उम्र को भी याद कीजिये, जब बालपन आपसे दूर जा रहा हो और जवानी की दहलीज़ पर आप क़दम रख रहे हों, तो कितनी ख़ुमारी रहती है। पढ़ने में मन ही न लगना और किताब हाथ आते ही नींद के झूले पर झूलने लगना। फिर उसी किताब का तकिया बन जाना। तो, मेरी उसी नींद पर बाबा कहते किताब हाथ में आते ही देवी मैया सवार हो जाती हैं तुम पर। क्या पढ़ोगी और पास होओगी।
एक बार तो ढिबरी (दीया)कि पढ़ाई में खटिया और तकिया भी जल गया था। गर्मी महसूस की तो उसको पानी से बुझा कर, चादर से उसे ढंक कर सो गई।सबको सुबह पता चला मेरे इस कमाल का।
ख़ैर, किसी तरह परीक्षा दी और रिज़ल्ट आया तो, सब लोगों में काफ़ी बच्चे पास और कुछ फेल हो गए थे, पर मेरा कहीं कोई नाम निशान नहीं, न पास न फेल।
उदास मन से घर आई डरते हुए बताया तो बाबा की जबरदस्त डांट मिली,"और देवी मैया बन कर झूलो।" चुप रही क्या कहती, सो तो ज़रूर जाती थी। पर उनके ताने से ज़्यादा फेल होने का दुःख मुझे भी तो था।
जब स्कूल खुला तो कुछ दिन बाद परिणाम आया, मैं बड़े अच्छे नंबरों से पास हो गई थी। प्रिंसिपल ने ऑफिस में बुला कर सबके सामने मेरी तारीफ़ की और पीठ थपथपाया ।
अब तो मेरी ख़ुशी का कोई ओर-छोर नहीं था। अकड़ती हुई घर गई।
घर जाकर बाबा को बताया "बाबा, देखा आप मुझे बड़ा ताना दे रहे थे न ।"
"आज तो मुझे ऑफिस में बुला कर प्रिंसिपल सर ने शाबाशी दी और बताया मैं पास हो गई हूँ।"
"मेरा स्पेशल केस था न इसलिए सबसे बाद में रिज़ल्ट आया, अलग से। मुझे संस्कृत में डिस्टिंग्शन मिला है।"
बाबा की बाछें खिल गए, आशीर्वाद दिया और हल्की -सी चपत भी लगा दी, फिर मिठाई भी खिलाई उन्होंने।