आख़िरी गन्तव्य
आख़िरी गन्तव्य
आठ साल की मीनू जब भी एम्बुलेंस की आवाज़ सुनती भीतर से दौड़ कर बाहर आ खड़ी हो देखती।फिर निराश हो भीतर चली जाती।
दरअसल वह अपने बाबा के इंतज़ार में रहती थी,क्योंकि बाबा एम्बुलेंस के ड्राइवर जो थे।उसके मन में सवाल रहता बाबा पहले तो इतनी देर तक बाहर नहीं रहते ,अब तो सुबह उठने के पहले चले जाते हैं और उसके सोने पर वापस आते हैं।इधर बहुत दिन से वह उन्हें देखने, उनके साथ खेलने को तरस गई थी।
पर जब माँ ने बताया कि एक बीमारी है जिससे बहुत लोग बीमार हैं तो उनको हॉस्पिटल दवा दिलाना और ठीक होने पर वापस घर लेकर जाना पड़ता है,इसलिए देर हो जाती है।
मीनू बात समझ गई कि मेरी तरह बहुत से बच्चे अपने बाबा और माँ की राह देखते होंगे,तो उनको ठीक होने पर उनको उनके परिवार के पास पहुँचाना बहुत ज़रूरी है।वह दोस्तों से कहती फिरती है मेरे बाबा सबसे अच्छे हैं,सबको ठीक होने पर घर पहुँचाते हैं।
उसकी बालसुलभ बोली को सुन माँ मुग्ध होती हैं और उदास होकर मन ही मन कहती हैं कि "बेटा हर बार एम्बुलेंस में बीमार अच्छे होकर घर नहीं जाते ,बल्कि कई बार जान गवां कर भी घर नहीं सीधे एम्बुलेंस से श्मशान चले जाते हैं,अपने बच्चों को बिना देखे और मिले।"