Satyawati Maurya

Inspirational

4.5  

Satyawati Maurya

Inspirational

हिम्मती बाला

हिम्मती बाला

6 mins
292



आज सुबह से ही मन उदास था।लग रहा कहीं घर से दूर ,कुछ समय की विश्रांति मिले मन को जहाँ ,वहाँ चली जाऊं।पर कहाँ जाऊं सवाल ये था।

माँ के घर जाऊं,पर एक तो दूर भी हैं वो और  जाते ही तमाम सवाल करेंगी ,"अकेले आई हो।घर में सब ठीक है न!किसी ने कुछ कहा तो नहीं।"वगैरह वगैरह।"

माँ हैं तो बेटी के प्रति उनकी चिन्ता भी लाज़िमी है।सहेली सुमि के यहाँ चली जाऊं तो?अचानक ख़याल आया उसकी ननद आई हैं,वो भी व्यस्त होगी,उन सबके बीच।अनजाने ही मैं बंगले से बाहर निकल पड़ी।अभी -अभी बारिश की बूंदों ने धरती को नहलाया था।धरती के बदन से मदहोश करती सोंधी ख़ुशबू वातावरण में फैली हुई थी। पेड़ों से बूंदें टपक -टपक कर एस्बेस्टस की छत पर चू कर एक अलग ही संगीतमय धुन रच रही थी।अनजाने ही सामने पगडंडी पर मेरे क़दम बढ़ गए। कीचड़ से साड़ी बचाने के लिए पल्लू कमर में खोंसा और प्लीट्स को हाथ में थामे ,आगे चलती जा रही थी।

अगल -बगल के पेड़ -पौधे जैसे नहा धोकर बच्चों की तरह तैयार हो कर खड़े थे। हवा के कारण उनसे रह- रह कर गिरती पानी की बूंदें मानो ख़ुद को सुखाने की कोशिश करती लग रही थी।

इक्का -दुक्का लोग उधर से गुज़र भी रहे थे। वे लोकल निवासी से उनकी जीविका का साधन यह अरण्य ही तो था।कुछ के हाथ में बीनी हुई जलावन की लकड़ी थी।जो कि अब भीग गई थी।किसी के सिर पर पलाश के पत्तों की पतली डालें थी,पत्तल और दोने बनाने के लिए।

कहाँ तो थर्मोकोल का ख़ूब चलन चल पड़ा था।कहाँ लोग फिर से इन दोने ,पत्तलों की पूछ होने लगी।ये जनजातियाँ इसी को व्यवसाय बना कर जीती थीं।इस आधुनिकता की ओर भागते दौर ने थर्मोकोल को अपनाकर ,उनकी आजीविका ही छीन ली थी।

पर प्रकृति ने ऐसी करवट ली कि सब अब फिर से उसकी ओर लौटने लगे।भला कब तक इंसान ग़ैर ज़िम्मेदार बना रहेगा। ये आदिवासी लोग तो जंगल से उतना ही लेते हैं ,जितने की ज़रूरत होती है।ज़रूरत की लकड़ी ,वो भी जो सूखी हो।जो पेड़ फलदार थे उनसे आम, जामुन,बेर ,जो भी मौसम के अनुसार मिलता उसे खाते और थोड़ा बेच कर अनाज,नून ,तेल ,साबुन ,मसाला आदि ख़रीदते थे।

आदिवासियों ने ही तो अरण्य का बख़ूबी संरक्षण किया है।हाँ,अपवाद तो हर जगह निकल आते हैं जंगल दोहन के।तब भी यही लोग उनका विरोध करते और फिर भी न सुने तो मेरे पति के पास शिकायत लेकर आते कि साहेब,"फलां-फलां पूरा का पूरा पेड़ काट रहा है।आप मना कर दो।" 

अरे हाँ, मेरे पति के बारे में बताती चलूं, वे फ़ॉरेस्ट ऑफ़िसर हैं ।इस क्षेत्र में काफ़ी समय से पोस्टेड हैं।हमारी शादी हुए अभी पाँच महीने हुए हैं।

उनके पास न रहने की ही तो उदासी थी जो मुझे अकेले घर में रहने पर डरा रही थी और अकेले होने के कारण हताश भी कर रही थी।

काम करने वाली इन्हीं में से एक आती तो है ,पर सुबह -शाम काम करके अपने घर चली जाती है।उसका भी परिवार,पति और बच्चे हैं।उसने कहा भी, "मैम साहेब रुक जाऊं आपके पास?"पर मैंने दिन में आने के लिए मना दिया,"शाम को आ जाना कह दिया ",वैसे वह कई बार यूँ ही चक्कर लगा जाती है।काम हुआ तो कर दिया,वरना थोड़ी देर बात करके चली जाती है।

अकेलेपन के कारण मैं घर से बाहर आ गई थी ,वरना कहाँ कोई स्त्री अकेले अरण्य विचरण करेगी?पतिदेव को ऑफ़िस के काम से 3 दिन के लिए बाहर जाना पड़ा।दरअसल,आज सुबह देखे एक बुरे सपने ने मन को उद्वेलित कर रखा था। देखा कि संदीप ,मेरे पति, की दुर्घटना हो गई है।फोन के नेटवर्क तो गाँव और शहर में ही बराबर नहीं मिलते तो अरण्य में तो वो अधिक ही रोदन करेगा।उस पर बारिश भी हो जाए तो भगवान ही मालिक है।वही हुआ भी,कई बार फ़ोन लगाया,पर बात नहीं हो पा रही थी। किसी और से भी बात फिर कहाँ से होती!मन कुछ बुरे की सोच कर परेशान हो रहा था।

 ये मन भी न ! कितनी ग़लत-सही दलीलें ख़ुद ही देता है और उन्हें खारिज़ भी करता चलता है।सुबह के सपने की दहशत तो बचपन से सुनती आ रही थी।कभी मन कहता कुछ नहीं होगा,कभी नज़रों के सामने सपने की विभीषिका घूम जाती, उसी मानसिक उद्वेग से व्याकुल हो कर घर से बाहर निकल कर इस निर्जन अरण्य में चलती रही मैं।

तभी ध्यान आया कि बहुत दूर आ गई।सामने एक पुलिया थी ,जिसके नीचे से नदी या कहें कि एक नाला बह रहा था,जो बारिश के मौसम में नदी का रूप धर लेता था।

बंगले से यह जगह तक़रीबन दो किलोमीटर तो होगी ही।हाँ ,संदीप के साथ कई बार हाथ में हाथ थामे घूमते हुए इधर तक आई हूँ।

ओह,शायद मेरे दुःखी मन को भी पता है कि यहीं आकर मुझे सुकून कुछ मिलेगा शायद!तभी तो अनजाने ही यहाँ आकर मेरे क़दम रुक गए।

दोनों हाथों के सहारे उसी पुलिया पर चढ़ बैठ गई।आसपास नज़र दौड़ाई ,देखा कि भीषण गर्मी के बाद हुई इस हल्की बारिश में सारा वातावरण जैसे हराभरा हो गया।

धूल धूसरित पर्णों पर से मिट्टी की तह हट गई और उनका हरापन निखर आया।अपने अगल -बगल नज़र गई देखा।सड़क के किनारे छोटे छोटे बहुत सारे पौधे थे,जिनमें बहुत छोटे- छोटे पीले और बैंगनी फूल खिले थे और उन पर मंडरा रही थी नन्हीं -सी पीली-सफ़ेद तितली।पेड़ों पर मैना ,गौरेया कौवे ,तोते भी अपनी मस्ती में उड़ते हुए गाए जा रहे थे। सामने पेड़ की डाल पर दो गिलहरियाँ भी भागते -दौड़ते मेरे सामने ही आकर गिरीं और क्षण भर मेरी तरफ़ देखा, फिर सरपट भाग निकली दोनों दूसरे पेड़ पर।

कुछ बच्चे आये और नदी में उतर कर मस्ती में नहाने लगे।अरण्य में रहते हुए ये सीधेसादे आदिवासी लोग कितने कम संसाधन में भी ख़ुश होने के तमाम सहारे ढूंढ़ लेते हैं।

एक हम इंसान हैं कि सब कुछ होने के बाद भी असंतोष से भरे रहते हैं।यही लोग हैं जो वर्तमान में जीते हैं।बहुत सपने नहीं पालते,प्रकृति को पूजते हैं,उससे उतना ही लेते हैं जितने में कि उनका जीवन चल जाये और प्रकृति को कोई नुकसान भी न हो।कम में सन्तोष भी ,ख़ुशी भी और जीवन जीने की ललक भी है इनमें।रात को अक्सर कोई वाद्य बजा -बजा कर मीठे गीत भी गाते हैं ये सब ।

मेरी कामवाली भी काम करते हुए गुनगुनाती रहती है ,हरदम मस्ती में रहती है।गीत भी वही प्रकृति और अरण्य, जंगली जीव जंतुओं के ।मानो उन गीतों में एक प्रार्थना -सी रहती है कि हे वनदेवता हमें और हमारे परिवार को अपनी शरण में रखना,हम तुम्हारा उपकार न भूलेंगे।

ओह्ह ,फिर मैं भी क्यों परेशान हो रही हूँ एक सपने को लेकर?अपने ईश्वर से प्रार्थना तो कर ही सकती हूँ।ईश्वर का नाम आते ही मन में एक तसल्ली -सी होती गई।

अब मेरे लब भी गुनगुनाने लगे कि तभी मेरी काम वाली मुझे ढूंढ़ते हुए आ गई ,तेज़ी से चलते हुए और थोड़ा डांट कर बोली," क्या मैम साहेब ,आप अकेले इधर क्यों आए?आपको घर के आगे -पीछे जाकर कितना आवाज़ दिया ,पर आप दिखे नहीं और जवाब भी नहीं मिला तो इधर आई भागती।कुछ बात है तो बोलो न मुझे?"

मैंने हँसते हुए कहा ,"एक बात की चिंता तो थी पर इधर आकर सब दूर हो गई।तुम यहाँ क्यों आई हो?"

पूछा तो वह हँसते हुए बोली, "चाय बनाने आई तो आप नहीं थे घर में,तभी साहेब का फोन आया ,तो मैंने उठाया। साहेब बोले कल दोपहर में आ जाएँगे वापस। बोले मैम साहेब को बताना।यही बताने ढूढते हुए इधर आई।"

थूक गटकते उसने आगे कहा,"अभी शाम हो रही जंगल में ज़्यादा देर तक रुकना ठीक नहीं ,मालूम नहीं क्या आपको।आप जल्दी वापस चलो घर।"

पुलिया से कूद कर मैं उसके साथ घर की ओर चल पड़ी।मेरी उद्विग्नता को अरण्य ने मानो अपने में समो लिया था।मेरा आँचल हवा में निश्चिन्तता से लहरा रहा था।बालों की लटें भी चेहरे पर आ रही थीं।पेड़ों की हरीपत्तियाँ भी मानो हाथ हिला कर मुझे हिम्मत बंधा कर विदा कर रही थीं।और मेरे साथ थी, आदिवासी बाला जो इस बियाबान में बड़ी भली -सी लग रही थी,जो अपनी हिम्मत से मेरी हिम्मत बढ़ा रही थी।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational