piyush pateriya

Romance

4.9  

piyush pateriya

Romance

अंजान इश़्क

अंजान इश़्क

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“नींद आ रही है तो मेरे कंधे पर सर रख सकती हो। बूढ़ा ज़रूर हो गया हूँ पर तुम्हारा भार अब भी सह सकता हूँ।” आतिफ की यह बात सुनते ही सारा मुस्कुरा उठी। उसने अपने सिर पर पल्लू को थोड़ा और झुकाया और आतिफ के कंधे पर सर रख दिया।

 अभी दो पल ही हुए थे कि आतिफ भी सीट से जा टिका और उसने अपनी आँखे बंद कर ली, मानो उसकी जवानी के वो पुराने दिन वापस आ गए हो, जब वो दोनों शहर से हर रविवार, बाजार से खरीरदारी कर लौटा करते थे। सारा ऐसे ही बैलगाड़ी में बैठे हुए आतिफ के कंधे पर सर रखकर सो जाती थी। उबड़ खाबड़ रास्तों की वजह से उसका सर उछलकर आतिफ के कंधों से टकरता और सारा की नींद टूटने लगती। आतिफ तुरंत अपना हाँथ बढ़ा सारा के सर पर रखता और उसे थपकियाँ देने लगता। यह ख्याल आते ही आतिफ का हाँथ सारा के सर तक जा पहुँचा और वह सारा को थपकियाँ देने लगा। सारा ने फौरन मुस्कुराते हुए उसके कंधे से सर हटाया और कहा “ये ट्रेन है बैलगाड़ी नहीं जो उबड खाबड़ रास्तों की वजह से मेरी नींद खराब करे।”

 सारा की यह बात सुनकर आतिफ के चहरे पर भी मुस्कुराहट आ गई। जिस बीते हुए कल में वो जा पहुँचा था सारा भी शायद उसके साथ-साथ उस बीते हुए समय में जा पहुँची थी।

 इस बार सारा ने अपने वजन का ज़ोर देते हुए आतिफ की गोद मे सर रखा और यह कहती हुई सो गई कि, “देखो मेरा वजन पहले से बहुत बढ़ चुका है सभाँल पाओगे न? अगर हड्डियों में ज़ोर नहीं बचा हो तो बता दो मैं दूसरी तरफ सर रख लेती हुँ।”

 आतिफ के ना कहने पर भी वो कहाँ उठने वाली थी। आतिफ ने कहा “अरे थोडा तो रहम करो, एक तरफ इस बूढ़े का कमजोर शरीर और तुझ बुढिया का ये दिन ब दिन भारी होता शरीर, अब मुझमें इतना वजन सभांलने लायक जोर नहीं है।” पर ये बुढिया कहाँ उठने वाली थी सारा ने आतिफ के चहरे की तरफ गुस्से से देखते हुए कहा “देखे ज्यादा बुढिया बुढिया मत रटो, मुझमे अभी बहुत दम बाकि है, तुम्हारी तरह नहीं कि सिर्फ बातों के गुब्बार भरते रहुँ समझे और दम नहीं है तो क्यों इतने डीगें हाकते रहते हो? अब दिखाओ दम इतने से में क्यों जान निकल रही हैं”।

 आतिफ मुस्कुराते हुए सारा का चेहरा देखते रहा। ठीक वैसे ही जैसे वो थक कर बैल गाडी में बिलकुल इसी अंदाज में आतिफ की गोद में सर रखकर सो जाया करती थी। रात के अंधेरे में भी सारा का चेहरा साफ नज़र आता था जैसे अंधेरी रात में चाँद। खैर अब आतिफ की आँखे थोडी धुंधाला गई थी पर चाहे रात में वो खुदका चेहरा ना देख पाता हो या देखने में दिक्कत महसूस करता हो लेकिन सारा के इस चमकते चहरे को वो आँख बंद करके भी पहचान सकता था।

 यह सोचते सोचते आतिफ नें सारा के चहरे की ओर देखा। उसका चेहरा पल्लू से पूरी तरह ढंका हुआ था पर सारा के चेहरे को देखने की तलब आतिफ को रेगिस्तान में भटके किसी प्यासे राहगीर की तरह तड़पा रही था। वह बार बार अपने हाँथों से उसके चहरे से पल्लू हटाता और सारा है कि उसे फिर चढा लेती। थक कर आतिफ ने हार मान लिया था कि सारा ने खुद ही पल्लू को हटा दिया। ये लो देख लो जी भर के आज ही तो पहली बार देखोगे। इससे पहले तो कभी देखा नहीं। बस ताका झांकी और तिरछी नज़रो से ही निहारते रहना। इस भरे बुढ़ापे में पर फूट रहे हैं इस बुड्ढे के, पूरी जवानी में न जाने कहाँ गुम थे।

 सारा की बातें मानो गर्म रसगोरस सी, जो जुबान को चटका तो देती पर अंदर ही अंदर मिठास से भरी होती। खैर अब तो इजाजत भी मिल चुकी थी तो वह क्यों न निहारता। सारी उम्र तो लाज शर्म के कारण सारा ने खुद को पर्द और पल्लू की कैद कर रखा था और आतिफ ने भी एक दायरा बना उससे दूरी बनाए रखा। सिर्फ वो बाजार से आते वक्त का समय होता जब वह दोनों मिल पाते औऱ आतिफ सारा को निहार पाता, पर वो समय भी ऐसे बीतता मानो समय को पंख लग जाते हो। आतिफ के लिए आज भी सारा का चेहरा उतना ही सुंदर था चाँद सा चमकता हुआ, उसके बाल अब भी रेशम से, बस समय और लोगों की नज़र के हिसाब से चेहरा झूर्रियों से भरा और सफेद पड़ चुके बाल।

 सारा को निहारते निहारते न जाने ट्रेन कब रतलाम पहुँच गई थी पता ही नहीं चला। खिड़की के पास से दोनों बैग को उतारकर आतिफ ने अपने कंधे पर टाँग लिए। ट्रेन से उतरते ही सारा ने आतिफ से उसका बैग छीन लिया “लोग क्या कहेगें जब दोनों बैग तुम्हारे पास देखेगें तो? लाओ मेरा वाला बैग मुझे दे दो।” अब वो दोनों अपना अपना सामान लादे चल पड़े घर की तरफ। स्टेशन से बाहर निकलते ही आवाज आई अम्मी..... अब्बु..... उनके बच्चे उन्हें लेने स्टेशन आ चुके थे। ट्रेन देर से आने की वजह से करीब आधे घंटे से वो इंतेजार कर रहे थे। उन्होंने आतिफ और सारा से उनके बैग लेकर अपनी अपनी गाड़ी में रख दिया। आतिफ के बेटे शकील ने कहा “अब्बु ये भाई साहब भी अपने ही गाँव से हैं। ट्रेन के इंतेजार में हमारी मुलाकात हुई तब मालूम हुआ की इनका घर हमारे गांव वाले घर से बहुत ही नज़दीक ही है”। आतिफ ने अच्छा कहते हुए सर हिलाया।

 चलो अम्मी हम चलते हैं। वैसे ही ट्रेन देर से आने की वजह से घर में सब परेशान होकर बार-बार फोन लगा रहे हैं। यह कहते हुए सारा के बेटे अकील ने बैग उठाया और सलाम दुआ करते हुए गाडी में जाकर बैठ गया। सारा भी तिरछी नज़र से आतिफ को देखती हुए गाड़ी में जाकर बैठ गई। गाडी के शीशे लगे हुए थे। सारा ने शीशे पर हाँथ रखकर आतिफ को उदास नज़रों से देखा, मानों उसकी आँखे आतिफ को आलविदा कह रही हो। “अब्बु चलों हम भी चलते हैं” शकील के यह कहने के बाद आतिफ भी गाड़ी में जा बैठा और वो सारा के साथ बिताए इस सफर की सारी यादों को अपनी आखों के कैमरे में कैद कर घर की तरफ चल पड़ा, जैसे वे उनकी सभी पिछली यादों को अपनी आँखो और ज़हन में बसाए हुए था। बाजार के बहाने एक दूसरे से मिलना, शादी के बाद भी छुपकर मिलना, टहलने के बहाने उसके घर के पास जाकर उसे देखना और गांव जाने के बहाने कुछ समय रेलगाडी में साथ बिताना। प्यार उनका आज भी वैसे ही बरकरार था जैसे पहले था। बस अफसोस इतना था कि कुछ तो अब भी बाकी था उनके बीच। वो किसी बंधन में नहीं बंधे, बस दुनिया की नज़र में अनजान से ही बने रहे और ऐसे ही अनजान बने रहेगें शायद अपनी-अपनी कयामत आने तक पर खुद की नज़रों में बहुत ही करीब थे। यह सब बयां करता हुए आतिफ का चेहरा फिर इस इंतेजार में खो गया कि ये जो समय अभी अभी गुज़रा है सफर का, ये फिर कब वापस आएगा।


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