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piyush pateriya

Others

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मन की आँखें

मन की आँखें

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गणेश चतुर्थी कल है अरे सब जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ, अभी मूर्ति सूखने में भी समय लगेगा। आज शाम तक सब मूर्ति सूखकर तैयार हो जाना चाहिए।


सुरेश, बेटा तुम यहां से जाओ, काम करने दो सभी को। - राजू ने कहा


राजू गांव का नामचीन पेंटर और मूर्तिकार है। गणेश चतुर्थी, दुर्गा पूजा और दीपावली के समय ही ज्यादा व्यापार होता इसलिए इस समय तो बहुत ही व्यस्त रहता है। कल गणेश चतुर्थी है। उसकी दुकान में आदेश पर दी गई मूर्तियों को आज ही लेने वालों का तांता लगा हुआ था। इस कारण वो और ज्यादा परेशान था। आज तक उसका सिर्फ 70 प्रतिशत काम हुआ था। जिसे देखते हुए खाना बनाने के बाद उसकी पत्नी रीना और चार बेटी सभी भी साथ में रंग भरने के काम में लग गए थे। सुरेश ने कुछ मूर्तिकारों को मजदूरी पर भी रखा था। वह भी आज छोटी मूर्तियों को बनाने में लगे थे। यह मूर्तियां घर में पूजा करने वाले लोग खरीदने के लिए कल सुबह से दुकान आने वाले है हर साल की तरह। इन सब से परेशान राजू बहुत ही चिंतित है और हल्की सी रुकावट होने पर भी वो झल्ला जाता है।


सुरेश अंदर जाकर खेलों सुनाई नहीं दिया क्या तुमको।


सुरेश अभी 5 साल का लेकिन हठी भी है। उसने कहा नहीं मैं भी गणपति बनाऊंगा। उसके बोलने का अंदाज बहुत ही गुस्सैल था पर उसकी तोतली बोली सुनकर सभी मुस्कुरा बैठे।


ठीक है मूर्ति बना रहे हो पर सामने के कमरे में जाकर बनाओ अंगन में सभी काम कर रहें हैं। - राजू ने कहा।


तो मैं भी तो ताम तर रहा हूँ। - सुरेश ने कहा।


ठीक है लेकिन आंगन में कोई आया और तुम्हारी मेहनत से बनाई मूर्ति से टकरा गया तो? तुम्हारी मेहनत तो व्यर्थ हो जाएगी ना। इसलिए सामने के कमरे में जाकर बनाओ ठीक है। - राजू ने बहुत प्यार से समझाते हुए कहा।


ठीक हैं मैं अंदर जाकल बनाता हूँ। - सुरेश ने यह कहकर थोड़ी मिट्टी उठाई और चला गया।


शाम होते होते सभी मूर्ति लगभग तैयार हो गई थी। सुरेश भी कोशिश में लगा था पर हर बार वो अपने गणपति बनाने में विफल होता रहता।


सुरेश इस बार तो बहुत ही गुस्से में लाल हुए बैठा कोशिश कर रहा था। राजू ने नज़र पड़ी तो पूछने आ गया सुरेश बेटा मूर्ति बन गई क्या?


सुरेश चिल्लाकर बोला, मुझे पलेथान नहीं तरो अभी। दिथता नहीं ताम तल लहा हूँ।


राजू मुस्कुरात हुआ पास आया और सुरेश की मदद करने लगा। अब राजू ने सुरेश की मदद करना शुरु कर दिया देखते ही देखते मूर्ति बनकर तैयार हो गई।


सुरेश खुश होकर बोला बना दई। अब तलर तरना है।


राजू ने पंखा चालू कर दिया जिससे मूर्ति जल्दी सूख जाए।


सुरेश भी कलर लेकर तैयार हो गया। देखते देखते उसने कलर कर अपना काम कर लिया।


सारा काम खत्म करने के बाद सभी दिन भर की थकान लिए गहरी नींद में सो गए। राजू को आज नींद नहीं आ रही थी क्योंकि कल उसकी अच्छी कमाई होने वाली थी यह सोचकर वो दरवाजे के पास ही खाट बैठाकर लेट गया और आसमान देखता रहा। आसमान का गोल सुंदर चांद, कितना सुंदर है ना यह, पर कल का दिन होगा जब यह और भी ज्यादा सुंदर होगा पर इसे देख नहीं पाएंगे कल। आसमान देखते देखते राजू को नींद लग गई। सुबह मुर्गे की बांग के साथ नींद भी जल्दी खुल गई। राजू तैयार हो गया। दिन भर भीड़, लोगों का तांता लगा रहा एका-एक कर मूर्तियां बिकती गई,


भईया ये कितने कि है।

इस रूप में थोड़ा बड़ा आकार नहीं है क्या

इसका आकार अच्छा है पर चेहरा बड़ा बना दिया।


कई सवालों के साथ राजू ग्राहकों को समझाता रहा और मूर्ति बेचता रहा। शाम ढलते ढलते सारी मूर्तियां चली गई। अब सिर्फ दो मूर्तियां बची रह गई थी। उसमें एक सुरेश की भी थी। बहुत मेहनत से सुरेश ने अपने गणपति को बनाया था। हां दिखने में मूर्ति उतनी सुंदर नहीं बनी थी ना ही कलर ज्यादा तेज थे। जो लोगों को अपनी ओर लुभा सके लेकिन बनाया तो पूरी मेहनत और लगन से था। पूरे भक्ति भाव से पर सुरेश ने मूर्ति नहीं अपने गणपति बनाए थे।


गांव के बीच एक पुरानी सी हवेली है। इसमें एक बुजुर्ग दादा दादी रहते हैं। अपने दौर में वो इश गांव के सरपंच हुआ करते थे। उनका एक लड़का है जो शहर में अपना व्यापार करता है। घर में कुछ नौकर भी, जमीन जायदाद की देखरेख ज्यादातर नौकर ही करते हैं। दादी ज्यादा समय पूजा में ही व्यतीत करती हैं। सप्ताह के आखिरी दिन व त्यौहारों में बेटा आता रहता है। उनकी एक बेटी भी है पिछले साल ही पड़ोस वाले गांव में उसकी शादी हुई है। वह भी त्यौहारों में कुछ दिनों के लिए अपने माता पिता के पास आती है। दादा को भी गणपति लेने जाना था पर आज सभी नौकर छुट्टी लेकर अपने घर गणपति पूजन में लगे थे।


दादी ने शाम को चाय बनाया और दादाजी से कहा- सुनो जी, आज गणपति पूजन के लिए गणपति लाना था। एक हफ्ते सो बोल रही हूँ न तो नौकरों ने ध्यान दिया नहीं आपने हामी भरी। और तो और शाम को आ जाऊंगा कहकर सारे बैल बुद्धि नौकर भाग गये। कल मैं एक एक की खटिया खड़ी करने वाली हूँ अब आप बीच में कुछ न बोलिएगा।


दादा ने कहा- अरे शाम की बखत क्यों झगड़ रहीं हो इस बूढ़े आदमी से। जब भी ये मीठा रसगोरस पिलाने का कहता हूँ तो इससे ज्यादा तो तुम अपनी बातों से मन कड़वा कर देती हो। लाओ मैं ही चाय पीकर बाजार से गणपति ले आता हूँ नहीं तो 10 दिन तक तुम मेरे प्राण निकाल दोगी। यह कह कर दादा ने चाय की चुस्की ली। और अपना खाकी कोट, नेहरू टोपी पहनी दरवाजे के पास से चप्पल पैरे में पहन हाथ में छड़ी ले निकल गए। बाजार की ओर।


बाजार कुछ ही दूरी पर था और वही पर राजू की दुकान भी थी। राजू इंतजार कर रहा था की कोई एक इंसान और आकार एक मूर्ति ले जाए और मैं भी घर निकलूँ। वही सुरेश भी आ गया और कहा पापा पूजा कब करेंगे, जल्दी चलो मम्मी बुला रही है। राजू भी सोचने लगा अब कोई नहीं आने वाला है इसने भी सब सामान बंधना शुरु कर दिया था।


शाम का बहुत ही खुशनुमा माहौल था, चारों ओर पूजन की पवित्रता महसूस की जा सकती थी। हवन कुंड से निकलने वाली सुगंध चारों ओर महसूस किया जा सकता था। चाचा आंखों से तो नहीं देख सकते थे पर महसूस उस समय उन्हें सब हो रहा था। चौराहे के पास अकार दादाजी किसी इंसान को टटोल रहे थे कि उससे दुकान के बारे में पूछ सकें।


राजू और सुरेश दुकान बंद कर रहे थे पर राजू की नज़र बार बार रास्ते की ओर ही पड़ी रही थी। उसने दादाजी को देखा और आवाज़ लगाकर कहा- अरे चाचा किसे ढूंढ रहें हो।


दादा ने कहा- बेटा इधर राजू का घर कौन सा है।


राजू- चाचा मैं राजू ही हूँ।


दादा ने कहा- राजू तू है तेरी आवाज तो बदली बदली लगने लगी है। बीड़ी पीना बंद नहीं किया क्या तूने। कैसे अजीब आवाज हो गई है।


राजू – नहीं चाचा वो बात नहीं है।


दादा अब दुकान तक पहुंच चुके थे। उन्होंने कहा, आज सुबह से तेरे पास आने की सोच रहा था पर कोई नौकर आया ही नहीं। दादी ने भी शाम से कह कह कर हालत खराब कर दी तो मैं अकेला ही चला आया।


अच्छा किया आप अभी आ गए हम लोग नहीं तो जाने वाले थे।


अच्छा चलो फिर तो सही रहा मैं अकेला ही आ गया किसी के आने का इंतज़ार नहीं किया।


इतने में सुरेश बोला- दादाजी कौन से गणपति ले जाएंगे आप अब सिर्फ दो ही बचे हैं।


अरे बेटा सभी प्रभु में कौन से का क्या सवाल जो तुम्हें ठीक लगे दे दो। बस ये देखने जो मैं ले जा सकूँ साथ क्योंकि अकेला आया हूँ ना। और रास्ता भी खोजते हुए जाना है तो छोटे ही देना।


हां चाचा जी अब तो छोटी मूर्ति ही बची हैं। सुरेश जो तुमने बनाया था वो वाले गणपति दादा जी को दे दो।


अरे वाह राजू अपने लड़के को भी काम पर लगा दिया। कितना बड़ा हो गया है तेरा बेटा


अरे चाचाजी ये तो अभी सिर्फ 5 बरस का ही है।

अरे वह इतने जल्दी काम सीख गया पर स्कूल पढ़ने भेजता है कि नहीं।

जाता है चाचा जी अभी छुट्टी चल रही है न इसलिए मूर्ति बनाना सीख रहा था।


अच्छा क्यों बेटा तुम बताओ तुम्हारे पापा सहीं कह रहे हैं न। मेरे डर से झूठ तो नहीं बोल रहे। बचपन में बिलकुल नहीं पढ़ता था बहुत डांट खाकर पढ़ा है इसने पर तुम ऐसा मत करना। मन लगाकर पढ़ाई करना ठीक है। अच्छा तो राजू कितने रुपए देने हैं तुम्हें।


चाचाजी दे दीजिए जितने भी देना है।

अच्छा तो ठीक है तुझे नहीं चाहिए तो मूर्तिकार से पूछ लेता हूँ। हाँ छोटे मूर्तिकार जी कितना हुआ आप ही बता दो।


सुरेश मुस्कुराता रहा पर पैसे के मामले में उससे कुछ बोला ना गया।


दादा जी- ठीक हैं तो सुरेश ये ले तू 500 ले ले और छोटे उस्ताद जी तुम ये 5 रुपए लो चाकलेट खा लेना और स्कूल रोज जाना ठीक है और हां अगर कम है तो अभी बता दे।


अरे नहीं नहीं चाचा जी ठीक है।

ठीक वाली बात नहीं है और अगर ज्यादा लग रहें है तो तू लौटा दें।

यह कहते है राजू और और दादाजी हंस पड़े।


इसी बीच एक आवाज आई अरे चाचाजी मैं अभी घर से आया चाची ने बताया आप बाजार आए है तो मैं दौड़ता हुआ आपको लेने के लिए।


अरे बबलू तू है। बबलू दादाजी के घर में नौकर है। चल अच्छा हुआ आ गया ले गणपति अब तू ही ले चल और दोनों हाथों से पकड़ना। और मुझे रास्ता भी दिखाता चलना। ठीक है राजू मैं जाता हूँ।


जी चाचा जी।


दादाजी और बबलू अब घर की ओर निकल गए थे।


सुहर से तेरी चाची ने कह कहकर अकेले ही भेज दिया। खैर अच्छा ही हुआ अगर राजू चला जाला तो मैं कहां भटकता रहता। तुझे भी डाट पड़ी क्या घर पर।


हां चाचाजी तभी मैं आने में लेट हो गया नहीं तो मैं आपको जाते बाजार आते समय ही मिल जाता।


अच्छा चल कोई बात नहीं। अब जो हो गया सो हो गया।


अच्छा चाचाजी वैसे राजू ने आपको कहीं पिछले बरस की मूर्ति तो नहीं दे दी कल जब मैं गया था तब मुझे पुरानी मूर्ति दे रहा था। एक को तो उसने ठीक से आकार भी नहीं दिया था। बहुत लुटेरा है। और दाम तो ऐसे मांग रहा हैं जैसे सोने की मूर्ति बनाया हो। आपसे कितने रुपए लिए।


आज तू दादी से डाट खाया है ना अब लगता है मेरे से खाने वाला हैं। भगवान का कोई मूल्य होता है क्या। और होता भी है तो कौन तय करता है ये और रही बात सेने चांदी और मिट्टी की तो सोना भी पत्थर मिट्टी से ही निकलता है। और प्रभु की तो हर मूर्ति सुंदर होती है इसमें देखने और तुलना करने की या मोल करने जैसी कोई बात ही नहीं होती। अब कुछ बुद्धि आ गई होगी तुझमें।


हां ये तो सहीं कह रहे हैं चाचाजी आप तो जानते ही हैं कि सब तरफ सुंदरता की ही चर्चा होती है। राजू ने खुद के घर के लिए इतनी सुंदर मूर्ति बनाया है कि सब लोग देखने जाते है।


फिर वहीं पर अटक गया तू। प्रभु इसके हाथों में होने के बावजूद भी इसको थोड़ी नहीं दे रहे। सहीं है ऐसे विचार होंगे तो प्रभु भी तुझे क्या अक्ल देंगे। देख मैं तो प्रभु को अपने घर अतिथि बनाकर ले जा रहा हूँ अब अतिथि कोई देख कर थोड़ी ले जाता है। जो आना हो वो ही आएंगे, अब उसपर भिन्न-भिन्न विचार गढ़ना कहां तक उचित है सेवा भाव और उसके प्रति सत्य निष्ठा कितनी हैं हमको ये समझना चाहिए ना कि आकार, रंग, रूप समझ अब।


हां चाचाजी ये बात तो बिलकुल सही कहा आपने।


चल कुछ तो समझ मुझे तो लगा था तू गौ सेवा करते करते गोबर बुद्धि हो गया है। अब कल सुबह जल्दी आ जाना पूजा की तैयारियां करने के लिए नहीं तो फिर डांट खाएगा।


जी चाचाजी घर आ गया था। चाचा जी गणपति विराजमान कर प्रसाद ग्रहण कर सो गए। उनके सपनों में रात भर गणपति की छवि दिखाई दे रही थी। गोरा रंग माथे पर शोभित हो रही बिंदी, दाहिनी ओर मूशक मोदक खाते हुए, सर पर मुकुट, बड़ी बड़ी आंखें, गले में सवर्ण की मालाएं। रात भर वो इस सुंदर दृश्य को हाथ जोड़ कर देखते रहे।


सुबह जल्दी उठकर दादाजी तैयार हो गए बबलू भी सुबह जल्दी आ गया था। पूजा की पूरी तैयारी कर चुकी था। सभी पूजन कक्ष में एकत्रित हो गए थे। आम के पत्तों की तोरन से सजा, गेंदे और पारिजात के फूलों से सुगंधित कक्ष, रौशन दान से सुबह की ठंडी पवन के साथ साथ सूर्य की आ रही किरणें कक्ष को एक अद्भुत ही स्वरूप प्रदान कर रही थी। दादाजी भी यह सब महसूस कर सकते थे।


पंडितजी भी द्वार पर आ पहुंचे थे। बबलू उन्हें कक्ष तक लेकर आता हैं। पंडित जी पूजा कराने के बाद जा रहे होते हैं तभी दादाजी उनसे स्वप्न की बातों को साझा करते हैं। यह स्वरूप हूबहू उसी प्रतिमा का होता है जो वह बबलू के साथ रात में लेकर आते हैं। पंडित जी यह सब अपनी आंखों से देख सकते हैं पर दादाजी नहीं देख सकते थे। दादाजी की इन बातों को सुनकर सभी अचंभित होते हैं।


बबलू देख जो प्रतिमा कल रात में हम लोग लेकर आए थे वहीं गणपति मेरे स्वप्न में रात में मुझे दर्शन देने आए थे। - दादाजी ने कहा।


पर चाचाजी मैं तो कल रात में आ ही नहीं पाया था पूजन और काम में व्यस्त होने के कारण मुझे समय ही नहीं मिल पाया था इसलिए। - बबलू ने कहा।


अच्छा फिर कल कौन आया। मुझे राजू के घर से यहां तक छोड़ने के लिए।- दादाजी ने कहा।


सभी इस बात को लेकर और अचंभित थे। लेकिन दादाजी गणपति को साफ देख पा रहे थे। उनका साफ मन उन्हें सब दिखा रहा था। वह उठकर जब स्तुति के लिए गए तो प्रतिमा को स्पर्श करते वक्त उनके हाथों ने जब प्रतिमा के हाथों को स्पर्श किया तो उन्हें महसूस हुआ की ये तो वही हाथ हैं जिन्हें पकड़कर मैं कल रात घर तक आया था। दादाजी सब समझ चुके थे। उन्होंने स्तुति की और कहा सब प्रभु की लीला है। जय गणपति बप्पा।


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