Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win

अंजलि सिफ़र

Abstract

4.5  

अंजलि सिफ़र

Abstract

अनाम रिश्ता

अनाम रिश्ता

6 mins
122



मोबाइल की घण्टी लगातार बज रही थी। मधु ने बरतन माँजना छोड़ फ़ोन उठाया। थकावट में भी एक मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गयी थी।माँ का फ़ोन था। हाथ पोंछ तसल्ली से बात करने को बैठने ही लगी थी कि माँ की बात सुनकर उसके चेहरे के भाव बदलते चले गये। चेहरे की मुस्कान की जगह अब माथे की त्यौरियों ने ले ली थी। कड़वी स्मृतियों की रेखायें चेहरे पर साफ नज़र आ रही थी।

"राघव काका बहुत बीमार हैं। जाने कब बुलावा आ जाये। मानो साँस तुझ ही में अटकी है। हो सके तो एक बार सब भुला कर मिलने को आजा। तुझसे मिले बिना नहीं जा पाएंगे, ऐसा कहला भेजा है।"

माँ की ये बातें ना चाहते हुए भी मधु को अतीत की उन गलियों में ले गयी, जिन्हें वह बरसों पहले भुला चुकी थी।

राघव काका उन्हीं के मोहल्ले में दो घर छोड़ कर रहते थे।बचपन से ही उन्होंने बहुत लाड दिया था मधु को। प्यार से वो उसे लाडो कहते थे। माँ से माँग भी लिया था अपने हरि के लिए उन्होंने उसे। शादी की बात लड़कियों को शायद किसी भी उम्र में समझ आ जाती है। भले उसके मायने उम्र के साथ साथ बदलते जाते हैं। वह भी इतना तो समझ ही गयी थी कि उसे इस बात पर शरमाना है। उसके बाद से उसे रघु काका का घर अपने घर से भी ज़्यादा अपना लगने लगा था। उसे इस शादी की खुशी हरि की दुल्हन बनने की कम और रघु काका की बहू बनने की ज़्यादा थी। उसके पिता बचपन में ही गुज़र गए थे लेकिन रघु काका ने दोस्ती का फर्ज़ निभाते हुए उसे पिता के जैसा ही प्यार दिया। रघु काका कहते ,"अरी पगली, तेरा ब्याह मैं हरि के लिए थोड़े ही कर रहा हूँ। तुझे तो अपनी बेटी बनाने को इसकी दुल्हन बना रहा हूँ।"

आखिर वो दिन भी आ गया जब हरि बारात लेकर उसके दरवाज़े आ पहुँचा। शादी की सब रस्में हो चुकी थी। बस विदाई बाकी थी। तभी ना जाने उसकी खुशियों को किसकी नज़र लग गयी। एक ज़हरीले साँप के काटने से हरि की मौके पर ही मौत हो गयी। सारे मण्डप में हाहाकार मच गया। मधु के लिए तो आसमान फट पड़ा था। वह रघु काका के पास जाना चाह रही थी। जाने उनका क्या हाल होगा। इस समय उन्हें उसकी, अपनी बेटी की सख़्त ज़रूरत थी। तभी उस पर एक और अप्रत्याशित बिजली गिरी। रघु काका ने कहला भेजा था कि विदाई नहीं होगी। और तो और उसे अंतिम समय में हरि को देखने या रघु काका से मिलने की भी मनाही हो गयी। वह कुछ समझ ना पायी। क्या शादी में आये बाकी सब लोगों की तरह रघु काका ने भी उसे मनहूस समझ लिया था। क्या उसका अभागा नसीब ही कारण था हरि की मौत का। उसने तो पति को खोकर भी पिता जैसे ससुर को अपनाना चाहा था। फिर क्यों किया रघु काका ने ऐसा। वह किसी को मुँह दिखाने के लायक ना रही। माँ ने कितनी मुश्किल से उसकी शादी का इंतज़ाम किया था। अपने नसीब के लिखे को टाल नहीं सकती थी वो। विधवा तो हो ही चुकी थी। लेकिन हरि की विधवा कहलाने से उसके नाम की छत तो मिल जाती उसे। अब वह क्या रही ? ब्याही , कुंवारी , परित्यक्ता ...? उससे उसका नाम तक छीन लिया था रघु काका ने।उस दिन के बाद से न उसने रघु काका की सूरत देखी थी और न ही अपनी उन्हें दिखाई थी।और वह ये सब भूलकर उनसे मिलने चली जाए ! माँ ने ऐसा सोचा भी कैसे। 

लेकिन बचपन की यादों का वास्ता देकर रघु काका ने उसे बुला भेजा था। इस बात को भी कैसे नज़रंदाज़ करे। और फ़िर जिस तरह से माँ ने कहा था कि .....। कुछ सोचकर उसने फैसला कर लिया। 

राजन को फोन किया," सुनिए, मैं आज ही गाँव जाना चाहती हूँ। माँ से मिले बहुत दिन हो गए। उनकी आज बहुत याद आ रही है। "

" हाँ, हाँ, चली जाओ। मैं थोड़ी देर में ही टिकट भिजवा देता हूँ। " 

कुछ ही घण्टों में वह गाँव पहुँच गई। माँ से मिलकर सीधा रघु काका के घर की ओर चल दी। आज बरसों बाद रघु काका को देख रही थी। जिन हाथों को थामकर उसने चलना सीखा था, आज वही हाथ निस्तेज से काँप रहे थे। क्षण भर में बचपन की कितनी ही स्मृतियाँ उसके मानसपटल पर से गुज़र गयीं।

"रघु काका , देखो... मैं....मैं..... मधु",वो चाहते हुए भी तुम्हारी लाडो न कह सकी।

" लाडो, तू आ गयी लाडो। तेरा ही इंतज़ार था मुझे। तेरी नफरत लेकर इस दुनिया से नहीं जा सकूँगा। तू जानना चाहती है ना कि मैंने तेरी डोली क्यों नहीं उठवाई ।"

वो चुपचाप काका की बात सुन रही थी। सच को जानने की ललक उनकी डूबती हुई आवाज़ के आगे फ़ीकी पड़ चुकी थी।

" हरि के बाद तुझे कौन पूछता लाडो। लड़की की जात तो उसके पति से ही होती है।बिना जड़ का पौधा,कहीं भी,कैसे भी रखो ,पनपने नहीं पाता बिटिया। मेरे आँगन की मिट्टी तेरे लिये बंजर हो चुकी थी । तू मेरे सामने खिली और बड़ी हुई थी। मैं तुझे मुरझाते हुए नहीं देख सकता था लाडो। मेरे घर तेरी डोली आने से पहले ही मुझे फैसला लेना था। राजन हरि का अच्छा दोस्त था । मैंने उससे बात की। वो तुमसे शादी करने को राज़ी हो गया। लेकिन अगर एक रात भी तुम मेरे यहाँ गुज़ार लेती तो तुम पर मेरी बहु होने का, हरि की विधवा होने का ठप्पा लग जाता जो सारी ज़िन्दगी ना उतरता। ज़माना कितना भी आगे निकल जाये मगर विधवा विवाह आज भी रेगिस्तान में फूल उगाने जैसा ही है। तुम भले ही रस्मी तौर पर मेरी बहू बन चुकी थी लेकिन तुम्हारा पैर तुम्हारे घर से बाहर ना निकला था। तुम अब हरि की विधवा नहीं थी क्यूंकि मैंने तुम्हें स्वीकारा ही नहीं था। तुम परित्यक्ता भी ना थीं क्योंकि हरि ने तुम्हारा नहीं बल्कि हरि की किस्मत ने उसका साथ छोड़ा था। जिस नाम की डोर टूट चुकी थी मैंने उस टूटी डोर से तुम्हारी जीवन की पतंग को बाँधा ही नहीं। एक अनामिका को नाम देना ज़्यादा आसान था राजन के लिए।जब ऐसा करने का वचन देकर मैंने समझाया तो राजन के पिता भी मान गए।

उस दिन मैंने केवल अपने बेटे को ही नहीं बल्कि अपनी बेटी को भी खो दिया था। जब भी तुम गाँव आती तो तुम्हें खुश देख दूर से ही संतोष कर लेता।कई बार तुमसे मिलने की कोशिश की लेकिन तुम....।पर अब तुम्हारी नफरत लेकर मैं इस दुनिया से....।"

"बस काका बस "

मधु ने भींच कर काका को गले लगा लिया। उसकी आँखों से पश्चाताप की अविरल धारा बह रही थी। नफरत का पर्वत तो उसमें कब का डूब गया था।

"अब मैं तुम्हें बेटी के सुख से और वंचित नहीं रखूंगी। तुम्हें मेरे साथ चलना होगा। अपनी मधु ,नहीं,अपनी लाडो,अपनी बहू के घर।"

मधु ने जैसे ही ये कहते हुए उन्हें अलग किया, वे उसके कँधे से लुढ़क कर गोद में आ गिरे। मानो उन्हें इसी पल का इंतज़ार था ।उनकी मुट्ठी ने मधु का हाथ यूँ जकड़ा हुआ था जैसे कह रहे हों कि लाडो,अब ना जाना छोड़ कर।



Rate this content
Log in

More hindi story from अंजलि सिफ़र

Similar hindi story from Abstract