ख़त
ख़त
दिवाली परसों थी। रौनक खत्म हो चुकी थी मगर दीवाली लेने वालों की गिनती अभी खत्म नहीं हुई थी। फिर से कॉलबेल बजी। देखा तो पोस्टमैन था। एक समय था जब डाकिये का हमारी ज़िंदगी में बहुत ख़ास रोल था। ख़ुशी की ख़बर में वो मिठाई साझा करता तो दुख की घड़ी में अफ़सोस। मगर आज फ़ोन और ईमेल के ज़माने में किसी के पास खुशी बाँटने का वक़्त नहीं तो आँसुओ की क्या बिसात।डाकिए का आना तो केवल बिलों तक रह गया था। प्रिया ने कुछ पैसे और प्रसाद देते हुए पूछा,"तुम्हें पहले कभी नहीं देखा ?"
"जी मैडम, चार महीने पहले ही जॉइन किया है।कभी आप का कोई ख़त आया भी नहीं।"
" मैं ही नहीं लिखती तो जवाब कहाँ से आए? किसके पास इतना समय है कि पहले लिफ़ाफ़ा लाओ, फिर लिखो, फिर पोस्ट करने जाओ।इतनी देर में तो दस फोन हो जायें।"
" मैडम,मेरे पास अंतर्देशीय पत्र और लिफाफे हैं।आप ख़त लिख देंगी तो मैं ही आपसे ले जाकर पोस्ट भी कर दूँगा। लेकिन हाँ, लिखने का समय तो आपको ही निकालना होगा।और मैडम, फोन में वो बात कहाँ जो ख़त में है।"
बहुत बातूनी था ये डाकिया। पता नहीं ये उसकी बात का असर था या उसे टालने का बहाना, प्रिया ने उसे पैसे देकर चार अंतर्देशीय ले लिए।
सारे कामों से निपट,अचानक टेबल पर पड़े नीले लिफाफे पर उसकी नज़र गई तो डाकिये की बात याद आ गई। सच ही तो कहा था उसने।सहेज कर रखे गए पत्रों से यादों की एक ताज़ा महक सदा आती रहती है,जो कभी ख़त्म नहीं होती।उसके हाथ अनायास ही कब से बंद पड़ी एक अटैची की ओर बढ़ गये। उसे नए- नए दोस्त और पत्र- मित्र बनाने का कितना शौक था।पत्रिकाओं में छपी प्रतियोगिताओं और वर्ग पहेलियों में तो वो अक्सर ही ईनाम पाया करती।
मनोज कॉलेज के दिनों में उसकी ज़िंदगी में आया था।अनगिनत ख़त लिखे मनोज को उसने। कोई फूलों की पत्तियों से तो कोई मोतियों से।कभी तो लेमन जूस से भी खुफिया पत्र लिखती और एक बार तो खून से भी लिखा।ये याद आते ही प्रिया ज़ोर से ह
ँस पड़ी। कभी कभी तो वह मिलती और साथ ही ख़त पकड़ा देती। मनोज हँसता। उसे क्या पता था कि दिल का हाल ख़त के ज़रिए बयान करने की बात ही कुछ और है। ना शर्मोहया का पर्दा,ना बातों में बनावट की ज़रूरत, ना बात पूरी करने से पहले कोई रोकटोक।कलम और दिल के बीच शायद कोई तार सा जुड़ा होता है। दिल की बात स्याही बन सीधा ख़त में उतरती जाती है। उसकी देखा देखी मनोज ने भी उसे ख़त लिखने शुरू किए मगर हर बार जब वो उसकी गलतियों पर गोले डालकर उसे ख़त वापस करती तो वह खूब चिढ़ता और फिर उसे कभी ख़त न लिखने की कसम खाता।
हँसते हुए प्रिया मनोज का एक पुराना ख़त अटैची में से निकाल कर पढ़ने बैठी तो वह उसे अपने इतना क़रीब महसूस करने लगी जितना कि शायद दिन में दस फ़ोन होने पर भी ना कर पाती।
वो एक के बाद एक खत पढ़ती गई और उसके प्यार पर साल दर साल पड़ी समय की परतें उतरती चली गईं। इन दस सालों में कितनी ही बार उसने मनोज से शिकायत की थी कि वह शादी के बाद बदल गया है मगर अपना पुराना रूप जब उसने ख़तों के आईने में देखा तो उसने पाया कि मनोज से ज़्यादा तो वो बदल गई है।
जाने कब उसके हाथों ने एक पैन और लिफाफा उठाया और मनोज से कितने ही प्यार भरे गिले, वादे और आमंत्रण कर डाले। मनोज एक हफ्ते के दौरे पर बाहर गया हुआ था। ये शायद किसी कशिश की ही कमी थी जिसकी वजह से अब मनोज का दो दिन का काम भी चार दिन में पूरा होता। रोज़ाना अप्प- डाउन करना उसे फालतू की फ़जीहत लगती थी। उसी कशिश को बरसों बाद प्रिया ने महसूस किया और पूरी तरह खत में उड़ेल दिया।
और शायद ये इसी ख़त की कशिश थी कि चौथे दिन ही कॉलबेल बजी। मनोज उसके फ़ेवरेट ख़ाकी रंग की शर्ट पहने टैक्सी से सामान उतार रहा था।सबसे पहले उसने उतारा, उसका पसंदीदा सफेद गुलाबों का बुके जिसके आगे उसका नीला लिफ़ाफ़ा चमक रहा था।मनोज उसके गले लगकर बुदबुदाया,"इस अनमोल तोहफे के लिए शुक्रिया।"
प्रिया सिर्फ मुस्कुरा दी।