सुहागटीका
सुहागटीका
"अरी ओ माला, तेरे चहेते डॉक्टर ने मिठाई भिजवाई है। उसकी छोकरी का ब्याह है। ले तेरा इस्पेसल डब्बा।" माला ने सितारा से डब्बा छीना और दौड़ पड़ी अपनी कोठरी की ओर क्योंकि वही इकलौती जगह थी पूरे कोठे में जहाँ रोने की इजाज़त थी उन्हें। आँसुओं का सैलाब उसे अतीत में बहा ले गया।
वैसे तो उनके पेशे में सांसो से ज़्यादा हिफाज़त की जाती थी गर्भ की। हिफाज़त इस बात के लिए, कि गर्भधारण ना हो। गर्भ यानि नौ महीने का नुकसान। लेकिन हो ही जाए तो फिर यही वो चारदीवारी थी जहाँ लड़की की दुआ की जाती थी। की जाए भी क्यों न, सोने का अंडा तो मुर्गी ही दे सकती थी।
सोनोग्राफी के ज़रिए वो ये जान चुकी थी कि उसके गर्भ में दलाल नहीं बल्कि एक नथ ही पल रही है।
'यहाँ भ्रूण के लिंग की जांच नहीं की जाती ', ऐसा उस डॉक्टर के यहाँ भी लिखा था। लेकिन ग्राहकों पर उनका इतना अधिकार तो था ही कि रात के समय सामाजिक नियम तोड़ने का बदला, वे दिन के समय कुछ कायदे तोड़कर चुकाएँ। उसके साथ हुए हादसों ने उसे तो नुकीले पत्थरों पर नाचना सिखा दिया था लेकिन अपनी नन्हीं जान को वो उनकी चुभन तक नहीं महसूस होने देना चाहती थी। जिस बहरूपिये की ओर वो हमेशा जलती हुई नज़रों से देखती थी, उसी की ओर करुणा भरी दृष्टि से देखती हुई बोली, "गुंजन बाबू, मेरी औलाद को किसी अच्छे घराने में गोद दिलवा दो। तुम्हारे पैर पकड़ती हूँ।आज तक
जो न किया वो करूँगी।"
"वेश्या की औलादें अच्छे घरानों की शोभा नहीं बनती", गुंजन बाबू ने दांत निकलते हुए कहा। "हाँ अगर छोरी हुई तो...।"
ये सुनते ही आपा खो बैठी माला।
"वेश्या की औलादें भी होती तो अच्छे घरानों की ही देन हैं ना। या हम अकेली अंडे देकर बच्चे पैदा करती हैं। मुझे क्या तुम अच्छे घराने से न उठा लाये थे", माला अपनी कड़वाहट को न रोक सकी थी।
"अरी, गुम हो गयी थीं तुम रेलवे स्टेशन पर। तुम क्या समझती हो गिद्ध मैं हूँ। गिद्धों से बचाया है मैंने तुम्हें। यहाँ तो हररोज़ एक से ही निपटना पड़ता है लेकिन बाहर तो...", कहते हुए गुंजन बाबू ने झटक दिया उसे।
उसने जाने कितनों के हाथ पैर जोड़े लेकिन कोई रास्ता सुझायी नहीं दिया। फ़िर एक आख़िरी कोशिश की उसने। सोनोग्राफी करने वाला डॉक्टर उसे बहुत चाहता था। कहता कि सामाजिक बन्धन ना होते तो उसे ब्याह ही लेता। उसने डॉक्टर की मनुहार की। तरह-तरह से समझाया। कहा कि कौन जाने ये तुम्हारी ही औलाद हो। जाने डॉक्टर को ये बात लगी या निःसन्तान होने का दुख, उसने उसकी बच्ची को अपना लिया। प्रसव के बाद सबको यही मालूम हुआ कि बच्ची मरी हुई पैदा हुई। उसके बाद से बच्ची से जुड़ी हर खुशी का उसका हिस्सा वो मिठाई के रूप में उसे भिजवा दिया करता और आज की मिठाई तो ऐलान थी इस बात का कि उसकी कोख की नथ अब सुहागटीके में बदलने जा रही थी।