अमर शहीद-एक व्यथा कथा
अमर शहीद-एक व्यथा कथा
मैं रोड की सर्वे करने के लिए आया हुआ था। रेस्ट हाउस में दो ही कमरे थे, मैं और मेरा सब इंजीनियर माथुर तीन दिनों से रुके हुए थे। अभी काफी दिनों का काम बाकी था, सुबह से बादलों ने घेरा डाल रखा था हलांकि बारिश शुरू नहीं हुई थी।
कारीडोर में कुर्सी डाले, रोड के संबंध में नोट बना रहे थे, चौकीदार और रसोइया खान शाम के खाने की तैयारी मे व्यस्त था, तभी जोरदार बारिश होने लगी। हम लोग काम छोड़कर बारिश का आनंद ले रहे थे तभी चौदह - पन्द्रह साल की एक लड़की अपने सिर पर टोकनी रखे तेजी से कारीडोर में बाहर से दौड़ते हुए आ गयी और सीढ़ी पर उसका पैर फिसल गया और गिर गयी। टोकरी गिर गयी थी, चारों ओर उस टोकरी में रखे बेर फैल गये थे। वह अपने घुटने से बहते खून से बेखबर बेर बटोरने में लगी हुई थी, शायद अपने दर्द से अधिक कीमत उन बिखरे बेरों की थी, जिनको बेचकर वह पेट पालती थी।
मुझसे रहा नहीं गया, मैंने उससे कहा कि--
--रहने दो बेटा, तेरे पैर में खून बह रहा है।
उसने एक नजर उठाकर मेरी ओर देखा, मानो कह रही हो -
--बाबू साब, आप पेट का दर्द क्या जानो, इसी की खातिर तो भरी बारिश में घर से बाहर आ गयी वरना आपकी तरह न बैठी होती।
मैंने उठकर फस्टएड वाक्स उठाया और उसे पकड़ कर बैठाया। मेरे डर से वह बैठ गयी लेकिन अभी भी निगाहें बिखरे बेरों पर लगीं थीं।
मैंने घाव को साफ करते हुए पूछा कि-
--तुम्हारे सारे बेर कितने के हैं?
उसने मेरी ओर देखा और बोली--
---चालीस रुपये के
--तो आज तुम समझो तुम्हारे सारे बेर बिक गये
मैंने चालीस रुपये पर्स से निकाल कर दे दिये। उसके हाथों में एक अजीब सा कम्पन था रुपये लेते समय। कहां रास्ते पर चलने वाले लोग दो रुपये, पांच रुपये के बेर लेते हैं और यह बाबू तो शायद पागल नहीं है। उसकी भोली सी आंखें मेरी ओर लग गयीं--
--बाबू , आप इतने बेर खा लेंगे?।
--अब बेर तो मेरे हो गये और हां मैं अभी कुछ दिनों यहां पर हूं, तुम्हारे बेर लेता रहूंगा।
उसने अपनी टोकरी से बेर पेपर पर डाल दिये। बारिश अभी भी जोरदार हो रही थी, बिजली कड़क रही थी,। तभी खानसामा पकोड़े और चाय लेकर आ गया, वह लड़की चुपचाप एक कोने में बारिश के रूकने का इंतजार कर रही थी। मैंने एक पेपर में कुछ पकोड़े उसकी ओर बढ़ा दिये, उसने जिस निगाह से देखा मैं अंदर तक हिल गया, मानो कह रही हो कि पहले रुपये दिये और अब पकोड़े क्या तुम भी एक आम आदमी हो जो जिसका मकसद कुछ ओर ही होता है। -
--बेटा खा लो, तुम्हारे उम्र की मेरी भी एक बेटी है, इला और तुम्हारा क्या नाम है?
- - जी, लक्ष्मी
उसने चुपचाप पकोड़े ले लिए और जल्दी जल्दी खाने लगी फिर अचानक रूक गयी और तीन चार पकोड़े अपनी फ्राक में रख लिए और उठ खड़ी हुई।
--बाबू जी अब मैं जाऊंगी, अम्मा भूखी होगी, उसके लिए खाना बनाना है।
--लक्ष्मी इतनी बारिश में कैसे जायेगी, खाना तो तेरी मां भी बना लेगी
--नहीं बाबू जी, उनको अब कम दिखता है, कई बार हाथ जला बैठती है न - -
उस तेज बारिश में टोकरी लेकर भाग गयी, मैं दूर तक जाते देखता रहा, बस मुंह से यही निकला - - बेचारी।
--हां, बाबू साब, यह और इसकी मां बहुत दुखियारी हैं--खानसामा ने खाना परोसते हुए कहा।
--तुम इसे जानते हो?
--इसे कौन नहीं जानता बाबू--इसके पिता सेना में सिपाही थे जो पाकिस्तान के सैनिकों की गोली से शहीद हो गये थे।
अब मेरी उत्सुकता बढ़ गयी थी, एक शहीद की बेटी और मां इस हाल में।
--साब, सेना के जवान गश्त पर थे, तभी अकारण पाकिस्तानी सैनिकों ने गोलीबारी शुरू कर दी, हमारे सैनिकों ने भी पोजीशन लेकर फायरिंग कर दी - - उनके कई सैनिक मारे गये, गोलीबारी शांत हो गयी थी। स्थिति के निरीक्षण के लिए कर्नल साब खंदक से बाहर आये तभी एक छिपे पाकिस्तानी सैनिक ने उन पर पीछे से फायरिंग कर दी। अमरसिंह की निगाह उस सैनिक पर पड़ गयी थी, मेजर साब को बचाने के लिए उसने उन्हें धक्का दिया लेकिन स्वयं गोलियों के निशाने पर आ गया और शहीद हो गया।
एक मिनट रुक कर बोला--
--साब, जिस समय उसकी लाश गांव में आयी, उसकी पत्नी गर्भवती थी, यह लक्ष्मी उसके पेट में थी। उस दिन गांव में मेला लग गया था, आसपास के गावों से लोग उस शहीद के जनाजे में शामिल हुए थे, पूरा गांव भारत माता की जय, अमर शहीद अमर सिंह जिंदाबाद के नारों से गूंज गया था। बहुत सारे रुपये देने की घोषणा की गयी।
--रेस्टहाउस के पास शहीद अमर सिंह की समाधि बनायी गयी और घोषणा की गयी कि शहीदी दिवस पर हर वर्ष मेला लगाया जायेगा और श्रृदाजंली दी जायेगी। साब सरकार की ओर से भी राशि उसे दिये जाने की घोषणा हुई। तभी अमर सिंह के पिताजी ने एक वर्ष बाद समाधि पर लगे मेले में ही लक्ष्मी की मां का बिवाह अपने छोटे लड़के से करवा कर वाहवाही लूट ली। सरपंच का चुनाव जीत लिया।
--लेकिन लक्ष्मी की मां की किस्मत देखिये, वह आवारा निकला और यह बाद में समझ में आया कि यह शादी का खेल उसके रुपयों के बंदर बांट के लिए किया गया था। रुपये लेकर पूरा परिवार शहर चला गया और अब भी जो राशि मिलती वह मारपीट कर ले जाते थे।
--लक्ष्मी की मां मजदूरी करके पेट पालती रही, अब उसको कम दिखने लगा है, इसलिए सीजन के हिसाब से यह लक्ष्मी सड़क के किनारे फल बेचती है।
--और मेले का क्या हुआ?
--कहां साब, यह सब भी राजनेताओं की बोट के लिए चाल होती है, जब मौका मिलता भुनाने लगते हैं, सरकार बदली, लोग बदले और सब कुछ बदल गया---एक लंबी सांस लेकर वह चुपचाप बर्तन उठाने लगा।
सुबह सुबह नींद खुल गयी थी, चाय पीने के बाद अचानक शहीद अमर सिंह की याद आयी। मैंने खानसामा से कहा-
--आजकल तो रोड का काम रुक गया है, मैं शहीद अमरसिंह की समाधि पर जाना चाहता हूं और अपनी श्रृदाजंली देना चाहता हूं।
खानसामा एक पल मुझे देखता रहा फिर बोला--
--साब, क्यों परेशान होते हैं, सारी दुनिया उसे भूल गयी और अब समाधि की भी कब्र खुद गयी है, जंगली जानवरों ने उसे अपना रहवास बना लिया है। अब आप--।
मैंने उसे बीच में रोक दिया--
--नहीं, मैं अवश्य जाना चाहूंगा, मैं तैयार होकर आता हूं।
रेस्टहाउस से नीचे उतर कर नदी के किनारे घास की लंबी लंबी कतारें थीं, चलना मुश्किल हो रहा था। जैसे तैसे वहां पहुंचे। टूटी फूटी समाधी, घास के नीचे छुप गयी थी, कुछ जंगली जानवर उस पर अपनी विष्टा कर गये थे, ऊदविलावों ने छेकर घर बना लिए थे---यह वह पावन स्थली थी जिसके नीचे हमारा राष्ट्र भक्त अमर शहीद सो रहा था और हम उसे इस तरह श्रृदाजंली दे रहे थे--मुझे याद आया किसी ने कहा था और आज अपने कथन पर रो रहा होगा--
"शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पै मरने वालों का यही बाकी निशां होगा'''. कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे, जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा!…"
मेरी आंखों से दो आंसू छलक गये, अमर शहीदों को यह हम कृतघ्न लोगों की जानवरों की विष्टा, बेतरतीब घास और टूटी फूटी समाधि से दी गयी श्रृदाजंली। क्या इसी अंतिम आकांक्षा के साथ वह शहीद हुए थे। वह शहीद की पत्नी, बेटी भिखारियों की जिन्दगी जी रहे हैं सिर्फ़ बड़े स्मारक बना कर और साल में एक आध बार फूल चढ़ा कर अमर शहीदों को सच में याद कर श्रृदाजंली देते हैं या यह सब बोट, नोट की खातिर अपने बिकते जमीर का प्रदर्शन है।
क्या सच में अमर शहीद जिंदाबाद?