अम्मा, अभी ज़िन्दा है।
अम्मा, अभी ज़िन्दा है।


शाम को सूरज डूबते वक़्त, जैसे ही नदीम ने घर का बाहर की तरफ़ खुला दरवाज़ा बंद करना चाहा तो फरज़ाना ने कहा- "नदीम खुला रहने दो। अज़ान का वक़्त होने वाला है।"
अम्मा कहतीं थीं न कि दोनों वक़्त, घर के दरवाज़े खुले रहना चाहिए। सुबह-शाम घर में फ़रिश्तों और घर के बुज़ुर्गों का आना-जाना होता है।
अम्मा तो इस घर के हर फ़र्द को कुछ न कुछ नसीहत करते हुए, पिछले बीस सालों से इस दुनिया को छोड़ चुकीं थीं।
नदीम जब भी ऑफ़िस से आते-जाते अपनी अम्मा के पास बैठते तो हमेशा कुछ न कुछ नसीहत करतीं। या अपनी पढ़ी हुई किताब के कुछ ख़ास पन्नों पर निशानी लगाकर नदीम को पढ़वाने के लिए रख लेतीं, जिन्हें बाद में पढ़ने को कहा करतीं थीं। अब्बू को घर के इन्तिज़ामों से सम्बंधित क्या पसंद था और क्या पसंद नहीं, इसका तज़किरा ज़रूर करतीं थीं।
जब फरज़ाना उनके पास बैठती, तो उसे अपनी अम्मा सास के क़िस्से सुनातीं। जब वह इस घर में बहू कर आईं थीं तब से लेकर आज तक इस घर की रवायतों को किस तरह ज़िंदा रखे हुए थीं। क्या-क्या क़ुर्बानियाँ दे कर बच्चों की परवरिश की थी। जो आज ये दिन देखने को मिले।
कितनी अटपटी लगतीं थीं फरज़ाना-नदीम को, उस वक़्त उनकी ये बातें?
लेकिन अपनी बातें वो किसी न किसी तरह मनवा लेने का हुनर भी जानतीं थीं। बहुत पक्की मिट्टी की बनी थीं।
वक़्त के साथ, अब फरज़ाना नदीम के भी, घर गृहस्थी सँभालते हुए बच्चे जवानी की दहलीज़ पर क़दम रख चुके थे। उन्हें भी शायद उन्हीं नसीहतों की आज ज़रुरत थी।
तभी तो नदीम आज कल, उन्हीं किताबों के पन्नों को पलटकर खाली वक़्त में पढ़ते रहते थे। जिन्हें अम्मा ने निशानी लगाकर छोड़ा था।
फरज़ाना ने जब अज़ान के वक़्त दरवाज़ा खुला रखने के लिए बोला तब नदीम ने कहा- फरज़ाना, "अल्लाह का शुक्र है, अम्मा अभी भी इस घर में ज़िन्दा हैं।"