अक्षय नवमी
अक्षय नवमी
कार्तिक मास की नवमी तिथि को अक्षय नवमी का त्यौहार मनाने की परंपरा है । धार्मिक मान्यता के अनुसार आज के दिन हमें श्रद्धा और सामर्थ के अनुसार दान पुण्य करना चाहिए जिसका फल सामान्य दिनों की अपेक्षा सौ गुना अधिक मिलता है । अपने पसंद और जरूरत के हिसाब से वो सभी भौतिक वस्तुओं का , पकवान और आभूषणों का दान करते हैं ताकि अगले जन्म में हमें यह सभी सामग्री प्राप्त हो और हमारा अगला जन्म भी सफल , सुखी , समृद्ध और खुशहाल बीते । इसी मान्यता के अभीभूत होकर मंदिरों में सैकड़ों हजारों लोग पहुंचते हैं । तरह तरह के पकवान , व्यंजन , मिष्ठान , बर्तन बासन , खाद्य पदार्थ एवं सुख सुविधाओं के सामान ब्राह्मणों को दान करते हैं । उनके आस्था, विश्वास , श्रद्धा और भक्ति भावना को सम्मान करती हूं ।
जब मैं बहुत छोटी थी तब से यह सब देखती आ रही हूं । मेरी दादी मां और दादा जी । घर गृहस्थी के तमाम चीजों के साथ साथ सोने के आभूषण , चांदी का सिंहासन , चांदी का खड़ाऊ तक दान दिया करते थें । दो तीन रिक्शा में भर कर सारा सामान हम खुशी खुशी रमणा से साहू पोखर मंदिर तक जाते थें । वहां एक मंहत जी , एक महाराज जी और कुछ पंडित लोग हुआ करते थें । जब सभी भक्त गण पहुंच जाते थे तब भगवान को भोग लगाया जाता था और हम सभी अपने अपने घर से लाए हुए सामानों का विधिवत दान में देते थें । मुझे एक बार की घटना अभी तक याद है जब मंदिर में हमारे घर से लाए हुए सभी सामग्री मंदिर में निकाल कर रखा जा रहा था तब उसमें एक तस्वीर भी थी जो मेरे मां पापा की थी । यह तस्वीर देखकर दादी मां ने कहा था कि यह फोटो कैसे आ गया ? तब मैंने कहा था कि यह फोटो मैं लाई हूं दान करना चाहती हूं ताकि अगले जन्म में मुझे यही मां पापा मिलें । पंडित जी ने पूछा था कि अगले जन्म के
लिए सिर्फ यह फोटो दान करना चाहती हो ? और कुछ नहीं चाहिए ? मैंने कहा था "नहीं और कुछ नहीं चाहिए मुझे बस मेरे मां पापा चाहिए ।" तब पंडित जी ने और दादी मां ने कहा कि यहां दान की गई वस्तुएं हम वापस अपने घर नहीं ले जा सकते हैं और ना ही इसका दोबारा इस्तेमाल कर सकते हैं । यह सुनकर मैं ज़ोर जोर से रोने लगी थी । उस दिन मंदिर में सभी लोग मेरे साथ थे । दादी मां , दादा जी , मां , पापा , अतुल भैया , आलोक भैया , संगीता दीदी , बबली और मैं । यह बात संभवतः 1982/83 की है । उसके बाद जब भी यह अक्षय नवमी का त्यौहार आया मैं बहुत सतर्क रहने लगी फिर कभी कुछ दान करने का ख्याल नहीं आया । त्यौहार हम मनाते रहें , इस तिथि पर आंवला के वृक्ष के नीचे विधिवत पूजा करके परिक्रमा करके वहां बैठकर खिचड़ी , पापड़ , चोखा , चटनी , सलाद बनाकर आंवला के वृक्ष को अर्पण करके वहीं जमीन पर पंगत लगाकर पूरा परिवार बैठकर खाते थें । यह सिलसिला 1998 तक अनवरत चलता रहा । मेरे ससुराल में भी दरवाजे पर आंवला का वृक्ष है वहां हम लोग ईट जोड़ कर चूल्हा बनाते थे लकड़ी जलाकर सोंधी सोंधी खुशबू फैलाकर लज़ीज़ खिचड़ी बनाते थे । सासू मां , ससुर जी , जेठ जी , जेठानी , छोटी ननद , जेठानी के पांच बच्चें , प्योली , अंकेश और मैं सब लोग इकट्ठे खाया करते थें । हमारे पीछे दो गाएं , दो तोता और एक कुत्ता भी था जो भी इस भोज में शामिल रहता था ।
कुछ साल पहले की एक स्मृति भी सुरक्षित है । फैज़ाबाद की बात है 2005 की जब हमने कंपनी गार्डन में जाकर ढूंढ़ा था आंवला का वृक्ष और वहां चादरें बिछाकर पिकनिक मनाई थी । वहां जाकर कुछ बनाना संभव नहीं था और ना ही इजाजत थी इसलिए हम लोगों ने पिज्जा , कोल्डड्रिंक , फल और छठ का बचा हुआ ठेकुआ लेकर गए थे । वहां बैठकर हम सभी ने यह उत्सव बेहद रोमांचक तरीके से मनाया । पति , तीनों बच्चों के अलावा कुंदन दीदी और जीजाजी भी थें हमारे साथ ।
आज फिर वही अक्षय नवमी का त्यौहार आया है मगर हम असमर्थ हैं किसी तरह का पूजा पाठ , दान पुण्य या किसी भोज का आयोजन करने में । ढलती उम्र के साथ घटती शारिरिक क्षमता और बदलते हालात ..... अभी तो बस उन अतीत के यादों के साथ मनाई जा सकती है ।