अभिसारिका
अभिसारिका
सुमेधा ने अपने धड़कते दिल को काबू में करने की असफल सी कोशिश की पर दिल और दिमाग दोनों अलग अलग दिशाओं में दौड़ रहे थे। हाथों ने आदतन बाल सँवारे, क्लच्चर लगाने के लिए उठाया तो दिल ने कहा, आज खुले ही रहने दे और उसने एक बार और कंघा कर बालों को यूं ही खुला छोड़ दिया। हल्का सा काजल लगने से आँखें पहले से सुंदर हो गयी थी। उसने दराज खोला, वहाँ बिंदियों के कई पत्ते पड़े थे, छोटी – बड़ी हर आकार की बिंदी। उसने एक सुर्ख रंग की छोटी बिंदी चुनी और माथे पर चिपका ली। आईने में देख कर अपना हल्का गुलाबी दुपट्टा ठीक किया। अभी चप्पल पहन ही रही थी कि नीता चाय ले कमरे में दाखिल हुई। उसे इस तरह तैयार देख अचरज भरी खुशी से भर गयी –
“ आप कहीं जा रही हो, जीजी ?"
“ हाँ भाभी, एक पार्टी में जा रही हूँ। चाय वहीं पी लूँगी। “
नीता चाय की ट्रे समेत बाहर गयी और दो मिनट में ही लौट आई। मोतियों के टाप्स उसकी ओर बढ़ाते हुए बोली – “ लो जीजी, इन्हें पहन लो। आपकी इस ड्रैस के साथ खूब जँचेंगे।"
सुमेधा को लगा, उसकी चोरी पकड़ी गयी। प्रणय से मिलने की उत्कंठा क्या उसके चेहरे पर चिपकी पड़ी है ?
उसने नजर नीची किए किए बिना किसी प्रतिवाद के टाप्स पकड़ लिए और चुपचाप पहनने लगी।
नीता सुमेधा की बड़ी भाभी है। एम एस सी भूगोल से की है ओर अब पिछले पाँच साल से इस घर के भूगोल को समझने की कोशिश कर रही है। उम्र में सुमेधा से दो साल छोटी है तो लाख मना करने पर भी सुमेधा को नाम से न पुकार कर हमेशा जीजी कहती है। शादी से पहले नौकरी करती थी, पर उम्मेद को नौकरी करने वाली ओरतें पसंद नहीं इसलिए अब नहीं करती। इस बीच दो बच्चों की माँ हो गयी है। अम्मा दादी बन कर बहुत खुश है पर भाई अक्सर खीझा रहता है। भाभी रिश्ते में बड़ी है सो सुमेधा उसे भाभी कहती है। नीता सिर झुकाए काम में लगी रहती है। बच्चे दादी – दादा के पास खेलते है और खेलते खेलते वहीं सो जाते हैं। कभी भाभी अपने पास सुला ले तो उनके कारण भैया की नींद बिगड़ जाती है। सुबह भाभी का चेहरा और आँखें दोनों सूजी होती हैं जिन्हें वह माथे तक आँचल खींच छिपाने की असफल कोशिश करती है। भाभी भयंकर गरमी में भी अंदर सोती है, भइया को गरमी लगे तो आधी रात को बाहर आ चारपाई सीधी कर लेते हैं। जब मच्छर काटने लगे तो उठ कर कमरे में सोने चले जाते हैं। एक दो बार उसने कोशिश की कि भाभी भी सबके साथ बाहर सो जाए पर नीता ,” मैं यहीं ठीक हूँ, ” कह दरवाजा भेड़ कर सो जाती है।
उम्मेद से दो साल बड़ी हैं सरला जीजी। अभी बी. ए किया ही था कि बुआ ने मुजफ्परनगर के लड़के का रिश्ता सुझाया। लड़का बीए करके यूपी बिजली बोर्ड में क्लर्क था। सरकारी नौकर। घरबार भी ठीकठाक था। तुरंत बातचीत पक्की कर शादी कर दी गयी और बीस साल की सरला घर से विदा हो गयी। तब सुमेधा तेरह साल की रही होगी। जीजी के जाने का सोच रह रह कर रो पड़ती तो रोती हुई सरला कहती – “ रो मत, मैं जल्दी –जल्दी मिलने आया करूँगी।" पर कहाँ आ पाई जीजी। शादी के बाद एक महीना तो दोनों तरफ रस्मों का लंबा दौर चला। जीजा साथ आते, साथ ही रस्में पूरी करते और रात से पहले पहले वापिस लौट जाते। जीजी को किसी से बात करने का मौका तक नहीं मिलता था। सुमेधा बहन से बात करने के लिए तरस जाती। कभी कोई बात पूछने जाती तो जवाब में जीजा उसकी कलाई अपनी हथेली से इतनी जोर से दबोचता कि वह छटपटा कर पूरा जोर लगा वहाँ से भाग जाती। जीजी बेबस देखती रहती और जीजा बेशर्मी से ठहाका लगा जोर से पुकारता – अरे आधी घरवाली साहिबा, प्यास लगी है पानी तो पिला जाइए। जीजी चुपचाप पानी का गिलास ला हाथ में थमा देती।
सावन में माँ ने जिद करके पापा को सरला की ससुराल भेजा था जीजी को लिवा लाने कि लड़की सावन में घर रह लेगी रस्म है, राखी के बाद उम्मेद खुद छोड़ आएगा या दामाद ले जाएंगे, जैसी सुविधा हो। अगले दिन बैग उठाए पापा के पीछे पीछे जीजी आ गयी। हमेशा शोर मचाने वाली जीजी इस बार शांत रहने लगी थी। उसने माँ से शिकायत की थी – माँ जीजी मेरे साथ खेलती नहीं हैं। माँ ने उल्टा सुमेधा को ही डाँट पिलाई – देखती नहीं अभी सफर से आई है, थकी है। चल उसे आराम करने दे।
तीसरे दिन जीजी थोड़ा सामान्य महसूस करने लगी तो उसने मान लिया कि जीजी पर थकावट का ही असर था। उस दिन शाम को वह जीजी के साथ अंताक्षरी खेलने की जिद करने लगी। जीजी ने थोड़ी नानुकर की फिर मान गयी। दोनों ने मिलकर ढेरों नये – पुराने गाने गाये। जीजी के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान लौटी ही थी कि हाथ में बैग पकड़े जीजा प्रकट हुए। जीजी के चेहरे पर एक काली लहर सी उभरती उसने महसूस की थी।
“ आप इस समय ?" जीजी अस्तव्यस्त हो गयी थी “
“ क्यों किसी और के आने का इंतजार हो रहा था क्या “?
जीजी कोई जवाब दिये बिना रसोई में माँ की मदद करने चली गयी थी।
रात को उसने जीजी के सिरहाने परछाई देखी तो डर कर अपनी चादर में दुबक गयी। ये जीजा थे जो दबी आवाज में गुर्रा रहे थे – “ बेवकूफ औरत, मैं इतनी दूर यहाँ झक मारने आया हूँ।"
जीजी की मिमियाती आवाज सुनाई दी – “ सो जाइए न प्लीज, पास में सुम्मी सो रही है। उठ जाएगी। साथ वाले कमरे में घर के सभी लोग अभी जाग रहे हैं। मेरा तमाशा न बनाओ। मैं हाथ जोड़ती हूँ।"
उसके बाद न जाने क्या हुआ। जीजी चारपाई से उठ कर कहीं चली गयी, पीछे पीछे जीजा भी। करीब दस मिनट बाद जीजी लौट आई और सुबह होते ही अपना सामान समेट ससुराल जाने के लिए तैयार हो गयी।
घर में एक गहरा मौन पसरा था। किसी ने जीजी को नहीं रोका। माँ ने सिर्फ इतना कहा – कुँअर जी, अभी तो आई ही थी सरला, इतनी जल्दी विदाई की तैयारी ..।"
“ तैयारी को आपने काबुल से घोड़े खरीदने थे क्या ? जो देना है, नकद दे दीजिए, हम वहीं मुजप्परनगर से खरीद लेंगे।" फूले हुए मुँह से जीजा ने कहा था।
उसने लिपस्टिक लगाती जीजी को झकझोरा – “ जीजी आपको तो राखी तक रहना था न?"
“ तू छोटी है अभी, तू नहीं समझेगी।" जीजी ने पर्स से राखी निकाल उसके हाथ पर रख दी थी – “ ले अपनी राखी बाँधेगी तो इसे भी बाँध देना।"
और सूनी आँखें लिए वे ससुराल चली गयी। माँ पापा की आँखों में बेबसी और लाचारगी देखी थी उसने और उसे गुस्सा आया था। कमाल है, पापा इस आदमी को कहते क्यों नहीं, हमारी सरला है जब मन करेगा तब भेजेंगे।
पर माँ पापा, भाई किसी ने नहीं रोका और जीजी चली गयी। उसके बाद इतने सालों में वे बहुत कम आ पाई हैं। आती भी हैं तो दो चार घंटे के लिए। रात तो कभी नहीं।
कालेज में गयी तो थोड़ी समझ आनी शुरु हुई। वहीं उसने फैसला कर लिया कि वह पढ़ेगी, कमाएगी और अपनी मरजी से जीएगी, कभी शादी नहीं करेगी।
छन्न की आवाज करता पेच हाथ से छूट नीचे गिरा तो उसकी सोच को विराम लगा। उसने झुक कर पेच उठाया और कसते हुए खुद को एक डांट लगा डाली – क्या ऊट पटांग सोचती रहती है सुम्मी।
पर्स उठा कर सुमेधा घर से निकल गयी। सामने से आते हुए रिक्शा को रोका और बैठते ही उसे होटल सनसिटी चलने का आदेश दिया। आटो लिंक रोड छोड़ मुख्य सड़क से होते हुए अब फ्लाई ओवर पर चल रहा था। उसने इस बीच दो बार रिस्टवाच पर समय देखा। अभी घर से निकले पाँच ही मिनट हुए हैं और बीस मिनट बाकी है। अपनी बेचैनी पर वह खुद ही मुस्कुरा दी – ये तुम्हें हो क्या रहा है सुमेधा। पैंतीस साल की उम्र में इतनी बेकरारी। इतनी घबराहट तो उस दिन भी नहीं हुई थी जब दो गली छोड़ तीसरी में रहने वाला सुरेश उसे देख पत्थर में लपेट कोई प्रेम – पत्र फेंक देता था। तब वह सातवीं में पढ़ती थी। दो महीने पहले ही तेरह पूरे किये थे। वह प्रेम पत्र उठाती, बिना पढ़े उसी तरह लपेटे लपेटे उसकी टाँगों को निशाना बना डालती। ये बात अलग है कि निशाना हमेशा चूक जाता। तीन महीने लगातार कोशिश करने के बाद सुरेश ने यह पत्थरबाजी बंद कर दी तो उसने शुक्र मनाया था। दूसरी बार जब वह ग्यारहवीं में थी तो सहपाठी गोपाल बिना कुछ बोले उसके कैमिस्ट्री के सारे प्रैक्टिकल कर देता। उसके नोटस बनाने में उसकी मदद कर देता। कैंटीन जाता तो उसके लिए कैडबरी लाना कभी न भूलता। उसने कभी कहा नहीं पर सारी सहेलियाँ उसका नाम ले कर उसे चिढ़ाती तो वह गुस्से से भर जाती। फिर गोपाल के पापा का कानपुर तबादला हो गया और बिना किसी हलचल के वह अध्याय वहीं समाप्त हो गया।
उस दिन भी नहीं धड़का, जिस दिन मौसी का सुझाया परिवार अपने लड़के को ले उसे देखने आ टपका था और उसने दृढ़ता से रिश्ते से इनकार कर दिया था। उनके जाते ही वह माँ पर बरस पड़ी थी – “ अपनी हालत देख कर तसल्ली ना हुई कि अब मेरे लिए सूली सजाई जा रही है। सब सुन लो मुझे शादी नहीं करनी है।" माँ भौचक्की सी उसे देखती रह गयी थी।
आटोरिक्शा एक झटके से रुका तो उसकी सोच भी रुकी। कोई सवारी अंदर रही थी और उसे सरकने को कह रही थी। सुमेधा ने सरक कर आने वाले के लिए जगह बना दी। व्यक्ति आराम से सीट पर टिककर बैठ गया और मोबाइल निकाल फोन करने में व्यस्त हो गया।
सुमेधा बाहर भागे जाते साइनबोर्ड पढ़ने लगी। कुछ मिनट बाद ही मन फिर से यादों के गलियारे में विचरण करने लगा – प्रणय से उसकी मुलाकात चार महीने पहले फेसबुक के जरिए हुई थी। दफ्तर के सैमीनार में बोलते हुए उसकी आकर्षक छवि किसी मित्र ने खींची थी और उसके फेसबुक पेज पर टैग कर दी थी। फोटो वाकयी बहुत सुंदर आई थी। मित्र को एक बङा सा धल्यवाद भेज उसने अपनी फोटो अपने फेसबुक वाल पर शेयर कर दी थी। मिनटों में ही उसका मैसेजबाक्स वाह, बियूटीफुल अ1सम जैसे संदेशों से भर गया था।
लगभग सारे कुलीग्स ओर दोस्तों ने उसकी पोस्ट पसंद की थी। अचानक संदेश में एक अनजान चेहरा झलका – “ आप वाकयी बहुत खूबसूरत हैं। “
इसके थोड़ी देर बाद ही मैसेंजर पर नमस्कार फ्लैश हुआ। साथ ही मैसेज भी - “ जी मैं प्रणय हूँ। एम.काम किया है। ब एक्सिस बैंक में लोन सैक्शन ब्रांच में प्रबंधक हूँ। आपकी फ़ोटो इतनी खूबसूरत लगी कि रहा नहीं गया। क्षमा कीजिएगा, अगर बुरा लगा हो।"
“ कोई बात नहीं, नमस्कार “ – उसे विश्वास नहीं हुआ, ये उसकी उँगलियाँ लिख रही थी।
चैट बंद होने पर उसने प्रणय का प्रोफाइल खोला। आकर्षक व्यक्तित्व था। सभी स्टेटस उच्च बौद्धिक विचारों से भरपूर। नारी और वृद्धों के प्रति सम्मान से भरे। एक दो निज के फोटो थे, सौम्य व्यक्तित्व।
उसने रिक्वैस्ट भेज दी थी और वह शायद लपकने को तैयार ही था कि अगले ही मिनट में वह उसकी फ्रैंडलिस्ट में शामिल हो गयी थी। लाईक और कमैंट का सिलसिला चल निकला। पिछले चार महीने से वे एक दूसरे से बात कर रहे थे। विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर बहस कर रहे थे। एक दूसरे को कमैंट और लाईक कर रहे थे। उसे वह बेहद सुलझा हुआ इंसान लगा। इसीलिए जब फ्रणय़ ने शाम को एक कप चाय का निमंत्रण दिया तो वह मना नहीं कर पाई।
वह अभी न जाने कितनी देर और सोच के समंदर में डुबकियाँ लगाती रहती कि आटो चालक ने उसकी सीट के सामने हाथ हिलाया – “ मैडम यहीं होटल के सामने उतरेंगी या कहीं और जाना है। आपका होटल तो आ गया।"
वह जैसे नींद से जागी। होटल का गेट बिल्कुल उसके सामने था और उसे अपनी बेखुदी में पता ही नहीं चला कि वह कब यहाँ पहुँच गयी। पैसे चुका कर वह रिक्शा से उतरी। धीरे धीरे चलती हुई होटल में दाखिल हुई। मध्यम दर्जे का शांत और साफ – सुथरा थ्रीस्टार होटल है सनसिटी। भीड़भाड़ शनिवार और रविवार को ही होती है। बाकी समय सामान्यतः सात –आठ से अधिक लोग नहीं होते और आत बुधवार है तो कम ही लोग होंगे। उसने अपनी गरदन को झटका दिया जैसे सिर पर सवार सोच को दूर फेंक रही हो।
अंदर हाल में दस मेज लगे थे जिन पर गुलाबी रंग के सुंदर मेजपोश बिछे थे और उस पर गुलाब के ताजा फूलों का एक एक गुलदस्ता। हर मेज पर चार कुर्सियाँ। मुस्तैदी से तैनात वर्दी में सजे बैरे। तीन मेजों पर बैठे लोग गपशप में लीन थे। दो मेजों पर दो जोङे चाय की चुस्की लेते बिस्कुट कुतर रहे थे। सामने की मेज पर एक व्यक्ति अकेला बैठा उसे ही टकटकी लगाए देख रहा था। ये ही प्रणय है – वह आगे बढ़ आई।
“ जी मैं सुमेधा, आप शायद प्रणय ...।"
“ जी ..जी आपने बिल्कुल सही पहचाना। मैं ही हूँ प्रणय।" उसने सुर्ख गुलाबी फूलों का बुके सुमेधा की ओर बढ़ाया ।
“ आइए बैठिए।"
बैठते हुए सुमेधा कुछ संकुचित हो आई। ये सच है कि वह स्वतंत्रता में विश्वास रखती है। सहशिक्षा में पढ़ी है जहाँ कई सहपाठियों से उसकी बातचीत होती रही है। दफ्तर में भी सहकर्मियों से उसका सहज मेलजोल है, कई बार इकट्ठे चाय पी होगी पर उसमें एक औपचारिकता है। आज यहाँ होटल में चाय पीने की कल्पना से ही उसे घबराहट हो रही है। अजीब सा अहसास है। बात शुरु करने के लिए ही उसने कहा –“ आपके नारीवादी विचारों की मैं प्रशंसक हूँ। आपकी फेसबुकवाल पर लिखे सारे स्टेटस और कमैंट मैंने पढ़े हैं “।
“ ऐसा है सुमेधा जी, मैं तो नर और नारी को एक समान मानता हूँ। लड़का और लड़की समाज रुपी गाड़ी के दो पहिये हैं। समाज के विकास के लिए इन दोनों का होना बेहद लाजमी है। भारतीय संस्कृति में औरत को सम्मानपूर्ण दर्जा दिया गया है। समय तेज़ी से बदल रहा है। नारी ने अपने दम पर यह साबित कर दिया है कि वह किसी से कम नहीं है। आज लड़कियां वो सब कर रहीं है जो लड़के कर सकते हैं। लड़कियां पायलट, डॉक्टर, जज, वकील, टीचर, इंजिनियर जैसे लगभग कई प्रोफेशन्स में अपना नाम रोशन कर रहीं हैं।
शिक्षा एवं स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त करने के उपरान्त तो आज नारी घर से बाहर निकलकर प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष के कन्धे से कन्धे मिलाकर आगे बढ़ रही है। पुरुष के समान आज नारी राज-काज भी सम्भाल रही है और अन्य क्षेत्रों में भी अपनी योग्यता प्रमाणित कर रही है। वह किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से पीछे नहीं है और स्पष्टतया यह सिद्ध कर रही है कि नर-नारी एक समान हैं। जो पुरुष औरत को हीन समझते हैं, मेरा बस चले तो उस आदमी को गोली मार दूँ - “ उत्तेजना से प्रणय की आवाज ऊँची से ऊँची हो गयी। चेहरा लाल हो गया। लोग बातें करना छोड़ उन्हें ही देखने लगे। पहले से ही संकोच से ग्रसित सुमेधा असहज हो आई – “ प्रणयजी, सँभलि , लोग हमें देख रहे हैं।"
“ सौरी सुमेधाजी जब कोई औरत से नाइंसाफी की बात करता है तो मेरा खून खौल जाता है। मुझसे कंट्रोल ही नहीं होता। लगता है, आप बहुत अनकम्फर्टेबुल हो गयी हैं। "
उसने हाथ के इशारे से मैनेजर को बुलाया – “ जी सर “ - वह हाथ बाँधे खड़ा था।
“ सुनो, हमारी मैडम बहुत घबरा गयी है। कोई ऐसी जगह दो जहाँ भीड़भाड़ न हो “ - उसने हमारी पर बल देते हुए कहा।
जी सर -मैनेजर ने आगे चलने का इशारा किया। अरुण उठ गया और साथ ही यंत्रचालित सी सुमेधा भी। अगले ही मिनट वे एक कमरे में थे।
सुमेधा जैसे नींद से जागी – “ हम यहाँ .....।"
“ बैठो “ –उसने सोफे की ओर इशारा किया।
“ पर यहाँ कमरे में क्यों “ ?
अरुण हँसा – “ तुम सीधी हो या सीधी बनने का नाटक कर रही हो।"
“ मतलब ?"
“ मतलब अभी समझा देता हूँ।" लड़खड़ाते हुए -उसने अपना हाथ सुमेधा की ओर बढ़ाया ।
“ तुमने पी रखी है।"
एक झटके से वह कमरे से बाहर हो गयी। सामने गैलरी में बैरा ट्रे में दो ड्रिंक सजाए चला आ रहा था। उसके चेहरे की विद्रुप हँसी को अनदेखा कर वह सड़क की ओर बढ़ गयी। पर अरुण की आवाजें बाहर तक उसका पीछा कर रही थी।
“ साली, दो कौड़ी की औरत, कुत्तिया। चली गयी। अच्छी खासी शाम बर्बाद कर दी। देख लूँगा, देख लूँगा तुझे। “ उसके बाद कब उसने रिक्शा लिया और कब रिक्शा लंबी सड़कें पार करता हुआ आखिरी मोड़ पर पहुँचा, उसे पता ही नहीं चला। रह रह कर नीता की बात जहन में घूम रही थी –
“ जीजी तमाम आधुनिकता, शिक्षा और संस्कार की लफाज्जी के बाद भी आदमी आज भी बाबा आदम के जमाने वाला जंगली है, एकदम बर्बर आदिमानव। औरत उसके लिए मात्र गोश्त का टुकड़ा है। औरत घर के बाहर जाए तो भेड़िए और जंगली कुत्ते बोटी - बोटी खाने को तैयार और घर में रहे तो चूहे जैसे छोटे जीव कुतर कुतर कर खाने को। एक ही बार में खाई जाए या कई बार में, खत्म औरत को ही होना है।"
चालक ने घर पूछा तो वह वर्तमान में लौटी। 3 / 2 में ले लो।
रिक्शा एक झटके से घर के आगे रुका। उसे बीस रुपए पकड़ा वह घर में दाखिल हुई।
माँ सामने से आ रही थी। देखते ही पूछ बैठी – “ इत्ती जल्दी पाल्टी खतम भी हो गयी।"
“ नहीं माँ, चल रही है, मेरा मन नहीं किया बैठने का तो चली आई। भाभी एक कप गरम गरम चाय पिला दो।" तौलिए से मुँह पोंछ उसने तौलिया खूँटी पर टाँग दिया मानो अपना सारा गुस्सा और घबराहट टाँग रही हो।
और वहीं माँ की खाट पर पैताने बैठ चाय की चुस्कियाँ लेने लगी।
“ सुन माँ, वो जो तू पिछले हफ्ते गाजियाबादवालों की बात कर रही थी न, तो इस इतवार उन्हें बुला ले।" माँ ने अचरज से उसे देखा नहीं सुम्मी गंभीर दिखाई दे रही थी। कोई मजाक नहीं कर रही थी। तसल्ली होने पर माँ ने चाय समेत हाथों को माथे से छुला किसी अज्ञात ईश्वर का धन्यवाद दिया। जब तक उसके हाथ नीचे आए, सुमेधा अपने आप को शादी के लिए मानसिक रुप से तैयार कर अपने कमरे में सोने जा चुकी थी।