sneh goswami

Inspirational

4.5  

sneh goswami

Inspirational

तुम्हें पहाड़ होना है

तुम्हें पहाड़ होना है

12 mins
252


श्यामपट्ट पूरा भर कर अचला ने गहरा साँस लिया और सभी बच्चों को नकल करने की हिदायत दे कुर्सी पर बैठ गयी। सुबह के साढे सात बजे से लगातार चिल्ला - चिल्ला कर पढाते हुए अब दो बजने को आए। अभी छुट्टी होने में पन्द्रह मिनट बाकी हैं। उसने कमरे में निगाह घुमाई। मझोले आकार का कमरा। बीचोबीच दो पंखे घूम रहे हैं। हवा कम दे रहे हैं , घुटन ज्यादा हो रही है। दीवारों पर एक ही आकार के कई चार्ट लगे हैं जो अधिकांश उसके अपने हाथ से बने हैं। कुछ चार्ट उसकी कुलीग रति के हाथ के हैं और कुठ शशि के। बीचोबीच पीले और लाल रंग का फर्नीचर है , आयताकार तीस मेज और उनके इर्द गिर्द सजी कुर्सियाँ। कक्षा में पैंतालीस विद्यार्थी हैं। सब चार – पाँच साल की आयु के। इस समय सभी बच्चे कापी खोले व्यस्त दिखने की कोशिश कर रहे हैं जबकि वह साफ देख रही है , लिख तो मुश्किल से दो चार रहे हैं इसलिए बीच बीच में हिदायत देते रहना जरुरी है।

लङकियों का काम लगभग पूरा होने वाला है। अरुण ने चुपके से अपनी कापी संध्या की ओर सरका दी है और खुद उसकी कापी पकङ कर बैठा है । वह भी आज्ञाकारी बच्ची की तरह फटाफट उसका काम पूरा करने में जुट गयी है। अनु आखिरी लाईन लिख रही है। पंकज एक अक्षर लिख लेता है और उसे तुरंत इरेजर से मिटा देता है। पीछे बैठे अनुज और मनु किसी बात पर गुत्थमगुत्था हुए ही चाहते है। 

उसने मनु को आवाज दी – “ मनु बेटा ! अपनी नोटबुक लेकर इधर आओ। देखें तुमने क्या लिखा है। “ 

मनु ने बेमन से कापी , पैंसिल , रबङ समेटी और उसकी मेज पर आ गया है। अनुज की आँखों में विजेता के भाव हैं। 

अचला ने मनु को अपने पास खङा कर लिया। वह अपनी बची दो लाईनें जल्दी से जल्दी पूरी कर अपनी सीट पर भाग जाना चाहता है। समय बिताने के लिए वह मनु से पूछ बैठती है - 

 “ मनु बेटे जब तुम बङे हो जाओगे तो क्या बनोगे ? “ 

“ पापा “

अचला को लगा , मनु ने उसका सवाल समझा नहीं। उसने अपना प्रश्न दोहराया – “ मनु बङे हो कर क्या बनोगे। “

मनु का चेहरा उत्त्तेजना से लाल हो गया – “ मैं जब बङा हो जाऊँगा तो मैं पापा बनूंगा। “ 

 “ ठीक है पर पापा बन कर क्या करोगे , वह तो बताओ। “

“ मैं सब की पिट्टी करुँगा। मम्मी की , दीदी की , दादी की सबकी। मैम जो पापा होते हैं न , वे सबकी पिट्टी करते हैं। मुझे भी पापा ही बनना है। “ अचला को अवाक देख वह लगातार बोले जा रहा है।

“ नहीं बेटे , बच्चे बङे होकर पायलट बनते हैं , टीचर बनते हैं , डाक्टर भी बन सकते हैं। तुम क्या बनोगे ? “

उसने थोङी देर सोचा – “ मैं बङा होकर फौजी अंकल बनूँगा फिर मैं बंदूक से सबकी पिट्टी करूँगा। मेरे पापा भी रोज सबकी पिट्टी करते हैं। “

इतने में छुट्टी की घंटी बज गयी और सब बच्चे घर भागने को उतावले हो उठे। उसने सब बच्चों को कतार में खङा किया और उनकी वैन में बिठा आई। पर जो सवाल मनु छोङ गया था वे अचला के साथ उसके घर तक चले आये थे और बचपन की कई यादें ताजा कर गये। 

अचला का बचपन जिन गलियों में बीता था , वहाँ ज्यादातर कामगर लोग रहते थे। लोहार , कुम्हार . धोबी , पासी , राज मिस्त्री सब जाति के लोग थे। सब अपने अपने हुनर में माहिर। सबके सब शोषित , पीङित , गरीब। सुबह रात का बचा- खुचा आधापेट खा कर काम पर निकलते तो अंधेरा हुए ही वापिस आते। कभी काम ही नहीं मिलता। कभी काम मिलता तो मजदूरी ही नहीं मिलती। मिलती भी तो आधी अधूरी। परिवार की जरुरतें अलग मुँह बाए खङी रहती। माँ या पत्नी इस इंतजार में दरवाजे पर खङी मिलती कि मर्द लौटे तो चार पैसे हाथ आएं। वें चार पैसे ले वह बनिए की दुकान पर जा थोङा बहुत राशन लाएँ। राशन आए तो शाम का खाना बने। 

ऐसे में खाली हाथ लौटे मरद अपनी खीज , अपना गुस्सा घर की औरतों को पीट कर उतारा करते। एक तो भूख से बेहाल काया , उस पर खाली बटुआ और घर भर की सवालिया आँखें। इन्हें झेल पाना मरदों के बस का न होता तो लङते –झगङते। जब बुरी तरह से थक जाते तो चौपाल में जा बैठते। मन का सारा दरद हुक्के या बीङी के कश में उङा देने की नाकाम कोशिश होती। जेब में दो पैसे आते तो दारु पी गम गलत करते। जो टोकता तो दे जूता , दे चप्पल। 

शाम में अक्सर हर दूसरे घर से चीखने चिल्लाने , गाली गलौज , रोने धोने की आवाजें आती। जो घंटे दो धंटे में शांत हो जाती। फिर सब अपने अपने दङबों में दुबक जाते , गुदङ में लिपट सो जाते या सोने का नाटक करते। अगले दिन फिर से जिंदगी का युद्ध जो लङना ङै। कोई किसी की लङाई में बेवजह दखल नहीं देता , यहाँ तो हर रोज का काम है , कोई कहाँ तक सुलझाए। 

औरतों ने इसे नियति मान लिया है , वे इसे रोते गाते झेल रही हैं। हाँ परिवार को रोटी देने के लिए मजदूरी करने , कोठियों में झाङू पौछा करने जैसे काम उन्होंने भी पकङ लिए हैं। बदले में कुछ पैसे और रोटी का जुगाङ होने लगा तो मरदों का शराब पीना सुलभ हो गया। अब वे निश्चिंत हो शराब , बीङी और जरदे में डूबने लगे थे। ओरतें जो कमा कर लाती , अक्सर स्वेच्छा से मरद को थमा देती। जो नहीं थमाती , पति नाम का जीव छीन झपट ले जाता। दाल रोटी पहले की तरह मुश्किल से ही नसीब होती। 

फिर एक दिन चमरटोले की नगीनी के घर से दिन के उजाले में लङने की आवाजें तीन टोले पार कर अचला के घर तक पहुँची। यह पहली बार हुआ था जब भरे दिन इस तरह का हो हल्ला हुआ। रमेसर को पैसे की तलाश में सामान ऊपर नीचे करते बैंक की पासबुक मिल गयी थी और उसमें सात हजार रुपया जमा था। शरबती ने तीन कोठियों में कांम करते करते पटेल नगर की मलिक आंटी के कहने पर बैंक में खाता खुलवाया था जिसमें वह वक्त बेवक्त या किसी तीज - त्यौहार पर मिले पैसे पिछले तीन साल से जमा करवा रही थी।

रमेसर घायल कुत्ते सा भौंक रहा था – “ छिनाल ये क्या है ? मुझे तो कहती है , पैसे नहीं हैं। सारी की सारी कमाई मुझे दे दी। ये कौन से यार के लिए संभाल के रखे हुए थे। ऐसा कौन सा धंधा करने लगी है जो छिपाने के लिए पैसे मिल जाते हैं। 

वह बोलता जाता और शरबती को लातों - थप्पङों से पीटे जाता। शरबती काफी देर से चुपचाप पिट रही थी पर यह इल्जाम नहीं सह पाई। तङप गयी। सुबकते सुबकते चिल्लाई – “ दाङीजार तुझे तो गाछ हुई जाती लङकियाँ कभी दीखी नहीं। सारी कमाई शराब में उङा देता है। इनके शादी ब्याह करने हैं कि नहीं। तीन साल में दिनरात मेहनत करके इकट्ठे किए हैं मैंने। “

रमेसर शरबती के तेवर देख डर गया या थक गया या बक्से के कोने से पचास का नोट पा गया था इसलिए ? कौन जाने पर फिलहाल वह घर से चला गया। रात को लौटा तो सुर एकदम बदले हुए थे – “ रानी तू क्या मुझे गया गुजरा समझती है। मुझे इनकी चिन्ता नहीं है क्या ? अपनी बिमला का रिश्ता तय कर दिया मैंने । परसों आठ-दस लोग आएंगे ब्याह करने। “ 

“ इतनी जल्दी। एक ही दिन में। वैसे भी अभी तो इस जेठ में सोलह ही पूरे किए हैं। “

“ लो कर लो बात , अभी सुबह तो लङ रही थी .। मैं कुछ करता नहीं। अब कर आया तो भी परेशान .। चुपचाप सुन लो सब। मरद की जबान है। जो कह दिया सो कह दिया। कोई डरामा नहीं चाहिए परसों। “ 

“ पर ये लोग हैं कौन। “ 

“ आएंगे तो खुद ही देख लीजो। इतना समझ ले , रोटी की कोई कमी ना है उस घर में। पेट अघा खाएगी। “

और वह करवट बदल खर्राटे भरने लगा था पर शरबती को सारी रात नांद न आई। पूरी रात डूबती उतराती रही। सुबह उठी तो आँखें सूजी थी और बदन टूट रहा था। काम करने गयी तो सारी मालकिन से अपनी बीती सुनाते सुनाते कितनी बार रो पङी। अगले दो दिन वह काम पर जा नहीं पाई। झोपङी की , उसके आंगन की साफ सफाई करनी थी। और भी कई छोटे मोटे काम करने थे। सभी कोठियों से दो दो साङी , पाँच बरतन , एक बिस्तर औरछोङा बहुत घर का सामान मिला था। उसे भी संगवाना था। उसी में माँ बेटी उलझी रही। 

नियत समय पर बराती आए तो कितना देर तो बह दूल्हा को चीन्ह नहीं पाई। जब रस्म के लिए उसके सामने लाया गया तो वह सदमा खा गयी थी। वर चालीस को पहुँचा आदमी था। पहली पत्नी मर चुकी थी उस के चार बच्चे भी साथ आए थे।

 पङौसनों ने हौसला दिया था – “ सब नसीबों का खेल है शरबती। जो किस्मत में लिखा हो वही मिलता है। तू तो काम पर चली जाती थी , तेरे पीछे तीनों भाई- बहनों को यही रोटी पका कर खिलाती थी न अब वहाँ उन चार को खिला लेगी। “ 

 शरबती मशीन की तरह सारे कारज करती रही। बेटी विदा हो गयी तो चारपायी ऐसी पकङी कि महीना भर बीमार पङी रही। फिर हिम्मत कर खुद ही उठी और धीरे धीरे फिर से काम पर जाने लगी।रमेसर का पीना पिलाना चलता रहा। हाँ कभी कभार लोग जीभ दबा फुसफुसा जरुर लेते – “ रमेसर ने बेटी के बदले पूरे पाँच हजार गिन कर रखवाए थे तभी रोज शराब पी जा रही है। “ 

टोलों में सबके मुँह मानो सिल गये थे। चौपालों में लोग एक दूसरे के सवालों से बचते रहते। हां इतना हुआ कि औरतें बच्चियों को काम पर साथ ले जाने लगी थी।

 एक दिन शांति अचला को भी अपने साथ कोठी में ले गयी तो अचला के सामने एक नया संसार खुल गया। कितना बङा घर। बाप रे बाप। सबके लिए अलग कमरे। तीन लोग हैं घर में और कमरे पाँच। मेम साहब का अलग कमरा। बाबा लोगों के अलग कमरे। मेहमानों का अलग कमरा। रसोई का अलग कमरा। यहाँ तककि नहाने का भी अलग कमरा। उनकी तरह नहीं कि जहाँ मन करे , वहीं दो ईंट खङी करके रोटी सेक ली। जहाँ मन किया , खाट खङी कर नहा लिए। एक ही कमरे में टेढे मेंढे आडे तिरछे होकर पाँचसात लोग सो लिए। टीन की छत गरम हो , ठण्डाए या टपके सब बराबर। यहाँ तो भर गरमी में भी कंपकपी है। बह भौचक्की सी एक एक चीज को देखती रही। पहली बार उसने मशीन यानि फ्रीज का ठंडा पानी पिया। फिर धीरे धीरे यह आना उसका रोज का क्रम हो गया। 

कितना सुकून था यहाँ। न भूख की चिंता , न काम का झंझट। यहाँ न लङाई थी न छीखना चिल्लाना। काम करने के लिए दो लोग , उसकी माँ झाङू –पौछा करती और कपङे धोती। खाना बनाने के लिए और बरतन के लिए एक अलग नेपाली बहादुर। मैम सुबह चाय पीते पीते बङे से कागज जिसे अखबार कहती हैं , पढती रहती। सुंदर सुंदर कपङे पहनती हैं। प्यारी सी जूतियाँ पहन ठक ठक करती परस पकङके कार में बैठ जाती हैं तो शाम को लौटती हैं। बङी सी मेज पर कितने सारे फल रखे हैं। उसने तो ये किसी रेहङी में ही देखे थे। यहाँ खाने को भी मिले है। 

उसने डरते डरते कोहली मैम से पूछा था – “ आप भी काम पर जाते हो। “

“ हाँ ! काम पर तो जाना होता है। “

“ आपको भी पगार में पाँच सौ मिलते हैं। “ 

वे हो हो कर हँसी थी – “ उससे ज्यादा।“

“ दो पाँच सौ ? “ 

वे पेट पकङे देर तक हँसती रही थी और वह मुँह बाए एकटक उन्हें देख रही थी कि माँ भीतर से झपटती हुई आई थी कि “ क्या अनाप शनाप बकती रहती है। चल पकङ कपङा डस्टिंग कर। “ 

भीतर ले जा उसने कान खींचे थे – “ बेवकूफ ! ये बङी अफसर हैं। बहुत पढी लिखी हैं। सौ कोठी में काम करके भी हमें जितने पैसे मिलेंगे , उससे कहीं ज्यादा पैसे मिलते हैं मैम को। “ - दर्द से ज्यादा हैरानी हुई थी उसे। 

“ इत्ते सारे ! ” उसने अपनी दुबली पतली दोनों बाजू फैला कर जानना चाहा था। 

“ हाँ इत्ते। चल अब दरवाजे पर कपङा मार। “ 

तो एक और बात उसे पता चली कि इतनी शांति से जीने के लिए पढा लिखा होना बहुत जरुरी है। 

अगले दिन बाहर से अखबार उठाकर भीतर लाने से पहले उसने वहीं फर्श पर फैला लिया था। कागज पर कुछ था तो सही पर क्या उसके पल्ले नहीं पङा। इसमें से कहानी कैसे दिखती हैं ? - वह बैठी सोच ही रही थी कि बहादुर आया और अखबार छीन कर ले गया। अब अंदर हँस हँस कर उसकी नकल उतार रहा था। 

“ मैं पढूंगी। “ अपमान से आहत उसके मुँह से निकला था।

“ पढना चाहती हो लङकी। भई शांति सुन , मेरी एक सहेली है मालती। हर रोज शाम को पाँच बजे से साढे छ बजे तक पानी की टंकी के पास पार्क में मजदूरों के बच्चों को पढाती है। किताबें वगैरा भी देते हैं। इसे ले जाना। मैं फोन कर देती हूँ। “

शाम को वह माँ के साथ पार्क में गयी थी। उसके जैसे कई बच्चे दरी पर बैठे पढ रहे थे। वह भी उनका हिस्सा हो गई। उसकी लगन और मेहनत के साथ साथ कुछ बनने का संकल्प देख कर ही मालती मैम ने उसे अचला नाम दिया था वरना वह तो तब तक पुतली पुकारी जाती थी। 

अचला ने इस नये नाम को सही साबित करते हुए दिनों में ही अक्षर ज्ञान , गिनती सीख ली तो मालती ने ही सरकारी स्कूल में उसका दिखिला करवा दिया। धीरे धीरे कदम रखते , उसने दसवीं अच्छे अंकों से पास कर जे बी टी में दाखिला ले लिया। एक बार फिर से कोहली मैम उसकी तारक बन आई थी। 

“ सुन शांति ! लङकी का दाखिला करवा देते हैं। आज से तेरी तनख्वाह बंद। इसकी जितनी भी फीस होगी , मैं दे दूँगी। तुम माँ बेटी पहले की तरह काम करती रहो। इसका कोर्स हो गया तो तुम दोनों की जिंदगी बन जाएगी।“ 

शांति तो श्रद्धा से दूहरी हो गयी थी। 

दो साल कैसे बीत गये ,पता ही नहीं चला। अचला ने यह परीक्षा भी पार कर ली थी। उसके बाद कई जगह इंटरव्यूह दिए। अब जाकर यह प्राईवेट नौकरी मिली है। पाँच हजार ही सही पर इज्जत से मिल रहा है। उसके पास भी अब कई साङियाँ, सूट हो गये हैं और दो जोङी सैंडल भी।

पर इतना वह समझ गयी है कि अभी लङाई बहुत लंबी है। उसे टोले की हर लङकी को पढाना है , इस काबिल बनाना है कि वह हिंसा का प्रतिकार करने में समर्थ हो सके। अभी खुद बहुत पढना है कि एक मुकाम हासिल कर सके। 

वह अब भी हर रोज पार्क जा रही है। अचला बनने और बनाने की मुहिम जारी रखने के लिए। मिश्रा मैम ने बताया था न – अचला माने पहाड़ या पहाड़ जैसा मजबूत। वह अपने आप को रोज यह वाक्य याद दिलाती रही है। चारों टोलों के बच्चे अपना पाठ याद कर रहे हैं। 


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational