समर्था
समर्था
“ है तुममें अपना बसा बसाया घर उजाड़ने की हिम्मत ? कहाँ जाओगी इन तीन बच्चों को लेकर ? मायके ! “ वह कुटिलता से मुस्कुराया। “ तुम्हारा यह सारा मान सम्मान मुझ से है समझी। यह जो लोग मिसेज चावला, मिसेज चावला कहते आगे पीछे घूमते हैं न , सब मिट्टी में मिल जाएगा। दो दिन में अक्ल ठिकाने आ जाएगी। या बच्चों का भविष्य खराब करने का इरादा है। सोचा है, कभी इन बातों के बारे में या रोना चिल्लाना ही सीखा है।"
और बोलते बोलते वह दहलीज से पार हो गया। एक पल को तो सुजाता वहीं जड़ खड़ी रही फिर उसने खुद को संभाला। नहीं अब और अपमान नहीं सहना। उसका मौन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु हो गया था। इस कवच से बाहर आना जरूरी है।
दोनों बच्चों को उसने दूध गरम करके दिया और होमवर्क करने बिठा दिया। दो दिन पुराना अखबार दोबारा से खोला। एक स्थानीय कोचिंग सैंटर में अर्थशास्त्र पढ़ाने के लिए ट्यूटर की जरूरत थी। उसने अपनी अटैची खोल सारे प्रमाणपत्र निकाल व्यवस्थित किए। शायद आज के लिये ही उसने प्रथम श्रेणी में एम . ए . इक्नोमिक्स किया था। बाहर निकल आटो लिया और कोचिंग सैंटर पहुँच गयी। पचीस हजार महीना वेतन .... उसने तुरंत हाँ कह दिया था।
अभी रहने का इंतजाम भी करना है। पिछले दस साल से लगातार अपमानित होती रही है। एक शराबी, दुराचारी पति बेशक वह बड़ा अधिकारी ही क्यों न हो , का साथ अब उसे मंजूर नहीं। उसने घर लौट कर अपना और बच्चों का सामान पैक करना शुरू कर दिया।
