*आसरा*
*आसरा*
श्रद्धा को इतने गुस्से में मैंने कभी नहीं देखा था।वह बचपन से ही शांत मिजाज की थी।हम दोनों एक ही जगह के थे इसलिए स्कूल-कॉलेज सब एक ही था।हाँ मैं राजपूत थी और वह कायस्थ घराने से आती थी। संयोग भी ऐसा कि हम दोनों की शादी भी एक ही जगह भागलपुर में हुई। ससुराल में कहीं आने-जाने की रोक-टोक नहीं थी अतः हम दोनों दो-चार दिनों पर मिलते रहते थे।
समय बितता गया कलांतर में हमारे बच्चे हुए, बड़े भी होगये।उनकी पढ़ाई-लिखाई के बाद उनकी शादी भी हो गई। श्रद्धा के पति ने घर के कलेष से ऊबकर अपना दूसरा मकान बनवा लिया था जहाँ सपरिवार रहते थे। लेकिन उन्हें ज्यादा दिन घर का सुख नहीं मिला।एक रात सोये तो सोते ही रह गये। श्रद्धा तो जैसे टूट ही गई खैर।
मैं उसके यहाँ अब कम जाती थी पर महीने में दो-तीन बार तो पहूँच ही जाती।जिस दिन का वाकया है अब उसपर आती हूँ। मैंने जब उससे उसके गुस्से का कारण जानना चाहा तो उसकी बहू ने तुरंत कहा,"देखिए न मौसी जी अब हमारे बच्चे भी बड़े हो रहे हैं तो कमरे कम पड़ने लगे हैं बस माँजी से हमने वृद्धाश्रम में रहने की बात कही है।अरे वहाँ इनके हम उम्र भी मिल जायेंगे , हमलोग भी कभी-कभी मिलने जाया करेंगे बस इसी बात पर इतना गुस्सा रहीं हैं।क्या ग़लत कहा हमने?"।
श्रद्धा ने चिल्लाकर अपने बेटे को बुलाया और कहा,"तुम दोनों अपना-अपना सामान समेटो और फ़ौरन घर से बाहर निकल जाओ, मैं इसी घर को वृद्धाश्रम में तब्दील कर दूँगी।और नाम रखूंगी *आसरा*
क्योंकि घर मेरा है तुम्हारा नहीं।"
मैं श्रद्धा पर गर्व महसूस कर रही थी।