आपसी समझ

आपसी समझ

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" माँ!मैं अपना ट्रांसफर करवा रहा हूँ।"

" क्यों बेटा?"

" मैं रोज-रोज के झगड़े से तंग आ गया हूँ माँ। ऑफिस में वही रोज की चिक -चिक। घर में पैर रखा नहीं कि आपलोगों की महाभारत सुनने को मिलती है ।किससे क्या कहूँ? आपको कुछ कह नहीं सकता और पूजा को समझाता हूँ तो कहती है, मेरी कोई गलती नहीं है ।जब किसी की कोई गलती नहीं तो फिर रोज़ झगड़े क्यों हो रहे हैं?" राज अपना सिर पकड़ते हुए बैठ गया।

पूजा जो पीछे से सारी बातें सुन रही थी राज को इतना परेशान देख घबरा सी गई।" आप ट्रांसफर मत लीजिए ।बहुत दिक्कत हो जाएगी ।सब कुछ फिर से सेटल करना पड़ेगा। मैं कुछ नहीं कहूँगी।"

 "हाँ बेटा !मुझे यहाँ इतना बड़े घर में अकेला छोड़ देगा? मैं भी नहीं कुछ कहूँगी ।चुप रहूँगी। बस तू बहू को समझा दे मुझसे लड़ा मत कर। "

"मैं लड़ती हूँ माँजी !आप सारा दोष मुझ पर ही.....। "

"बस! फिर आप दोनों शुरू हो गए ।इसलिए मैं जाना चाह रहा हूँ ना ।आप तो समझदार हैं माँ! थोड़ा आप समझ लीजिए। थोड़ा पूजा को समझा दीजिए ।जो कहना है, कहिए ,पर प्यार से ।एक हाथ से ताली नहीं बजती है ।आप दोनों मिलकर रहेंगे तो हमारा परिवार सबसे सुखी परिवार होगा।"माँ जी और पूजा ने एक-दूसरे को देखकर कुछ समझा और शायद एक दूसरे को समझाया भी। अब शायद राज को भी कुछ हल निकलता हुआ दिख रहा था।


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