आक्रोश(निबन्ध)
आक्रोश(निबन्ध)
आप ध्यान से देखें बागों में जाकर क्या
कभी तुरंत फूलों को भी मुरझाते देखा है।
नहीं न, तब क्यों मनुष्य अपने अंदर तप से तपाया हुआ
अग्नि कुण्ड फिर से प्रज्वलित कर रहा है।
आक्रोश मनुष्यो के कमजोरी की निशानी है, वो अपना आगे ,
नहीं बढ़ता है। क्योंकि मनुष्यो के अंदर क्या रखा है।
सिर्फ़ कमजोरी के आलावा आक्रोश एक
जलती ज्वाला का कार्य करता है।
जिस प्रकार मटके में जल भर दिया जाता है,
और उसे ईधन से अग्नि को जलाया जाता हैं।
उसी प्रकार मनुष्य भी है, जब उसके अंदर अग्नि जलती है,
तो मनुष्य किसी को भी नहीं समझता है।
ओर वो अपना ख़ुद को हानि पहुंचा देता है
आप भी देखिए ! गौर से मनुष्य लड़ाई झगड़े में
कभी खुद नहीं जाता है, कभी वो अपने
हाथों से थप्पड़ नहीं मारता है।
सबसे पहले जो अंदर आक्रोश है, वहीं आगे जाता हैं
आक्रोश एक ज्वाला की तरह है जो मनुष्यो को जला देता है।
उनके अंदर तो काफ़ी ज्वालाएं है,वो जो है
एक बड़ी बहन की तरह कार्य करती है।
वैसे तो आलस्य, जलन, घमंड आदि होती है।
पर इसमें मुख्य है आक्रोश,
आक्रोश वो ज्वाला है जो आने वाले समय को
भी नहीं छोड़ती है, सब कुछ नष्ट कर देती हैं।
आप सीधे तरीके से एकांत स्थान पर हो जाइए।
ओर वहीं से किसी को आक्रोश से कुछ कहे क्या होगा ?
जब कि सबसे पहले आप नहीं जाएंगे,
जो आपके अंदर धधकती ज्वाला है,वो प्रस्तुत होगी।
क्योंकि नहीं रहेगी तो आप किसी भी व्यक्ति को
कुछ आक्रोश से कह नहीं सकते हैं।