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chetana bhati

Abstract Inspirational Children

3  

chetana bhati

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आजा रे - - -

आजा रे - - -

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       "कितनी रद्दी इकट्ठी हो गई है । बेचते क्यों नहीं ? घर को कबाड़खाना बना रखा है । अखबार ही बंद कर देते हैं ।" - श्रीमती जी बड़बड़ा रही थीं ।

       " वे मनमानी कीमत बताते हैं । असली कीमत से , आधे से भी कम । तो ऐसे कैसे दे दूँ ।" - श्रीमान जी की परेशानी थी ।

       " कितनी महंगाई है ! खर्चे बहुत बढ़ गए हैं । कुछ कम करने होंगे खर्च । अखबार बंद ही कर देते हैं । रुपए तो बचेंगे ही , रद्दी का भी झंझट नहीं । " - श्रीमती जी की राय थी ।

        " ये भी क्या-क्या छाप देते हैं , उल जलूल ? अखबारों का भी स्तर अब वह नहीं रहा , जो कभी रहा करता था । " - श्रीमान जी ।

         " और ये - ये देखो , पन्ने के पन्ने भरे पड़े हैं विज्ञापनों से । अब क्या पढ़े कोई ? " - श्रीमती जी ।

          प्रतिदिन सुबह की चाय के साथ अखबार पढ़ते कुछ इसी तरह की बातें होती रहती दोनों में ।

        स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष में अखबार की छुट्टी थी , तो दूसरे दिन अखबार नहीं आया । दोनों केवल चाय लेकर बैठे थे , चुपचाप उदास , जैसे कहीं कुछ था जो गुम था । न बातें की जा रही थी ना ही चाय की चुस्कियां ली जा रही थीं । सुबह ही नीरस हो गई लग रही थी ।

         रीते- रीते से , खाली-खाली से , मन - मस्तिष्क से , बैठे दोनों मन ही मन मना रहे थे कि - " तू जहां भी है , जैसा भी है , बस , आजा रे - - -"


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