तिरंगा
तिरंगा
" फिर आ रहा है हमारा स्वतंत्रता दिवस। कितना उत्साहित रहते थे ना हम बचपन में इस दिन। सुबह जल्दी उठकर तैयार होते , स्कूल जाते , वहां झंडा वंदन होता , प्रभात फेरी निकलती - झंडा ऊंचा रहे हमारा गाते हुए। और दो-दो मोती चूर के लड्डू लेकर वापस लौटते। आज भी मुंह में स्वाद बसा हुआ है उन लड्डूओं का। " - सरिता देवी अपनी सखी रामदुलारी जी से फोन पर बतिया रही थी।
" हां वह सड़क के दोनों और डली चुने की पट्टी और खंभों पर सुतलियों में चिपकी रंग-बिरंगी पन्नियां - हरी - नीली - पीली। " - रामदुलारी जी ने याद दिलाया।
" हाँ रे , कितना मजा आता था न। उमंग में भरे रहते थे। " - सरिता देवी बोली।
" हां जोश - प्रसन्नता तो अब भी रहती है। बस तरीका बदल गया है जमाने के साथ-साथ। अब तो तिरंगा फहराते हैं बतर्ज हर घर तिरंगा और सेल्फी अपलोड कर देते हैं। " - रामदुलारी जी ने कहा।
" हां लेकिन ध्यान रखना शाम होते ही ससम्मान उतार लेना झंडा और ठीक से तहा कर रख लेना। यह नहीं की लगा है तो लगा ही है कई दिनों तक। " - सरिता देवी बोली।
"अरे नहीं बहुत ध्यान रखते हैं हम अपने ध्वज का। कहीं इधर-उधर पड़ा भी दिख जाए तो उठा भी लाते हैं सम्मानपूर्वक।" - रामदुलारी जी ने आगे बताया।
"अच्छा अब फोन रखें और राष्ट्रीय पर्व मनाने की तैयारी करें। अग्रिम बधाई। " - सरिता देवी फोन बंद करते हुए बोलीं।
