Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

4  

Rajesh Chandrani Madanlal Jain

Inspirational

20 हाथ की जुबान

20 हाथ की जुबान

9 mins
281


अतीत के दृश्य मेरी आँखों के सामने चलचित्र जैसे चल रहे थे। 

मेरे होने वाले ससुराल में, मेरे निकाह का दिन तय करने गई, मेरी अम्मी मायूस होकर लौटी थी। अत्यधिक रईस मेरे (होने वाले) ससुराल पक्ष ने जिस प्रकार मेरे एक्सीडेंट के बाद, मेरे ऑपरेशन और इलाज का सारा खर्च उठाया था, उससे अम्मी को उम्मीद थी। अम्मी सोच रहीं थीं, उसी उदारता का परिचय देकर, उजैर के घरवाले तीन वर्ष पूर्व तय किए गए रिश्ते अनुसार, अपने बेटे उजैर और मेरे निकाह की डेट तय करेंगें। 

दरअसल पाँच भाई बहनों में, मैं अपनी अम्मी की दूसरी औलाद हूँ। मेरे अब्बू जब मैं आठ वर्ष की थी तब अल्लाह को प्यारे हो गए थे। 

अब्बू की अचानक हुई मौत के पहले तक हम भी खासे रईस थे। फिर परिवार की आमदनी का कोई जरिया नहीं रहा था। इसी वजह से इन वर्षों में हमारी माली हालत बिगड़ गई थी। हालांकि पिछले दो वर्षों से मेरे बड़े भाई ने, अब्बू के इत्र के व्यवसाय को फिर शुरू किया था। भाई की उम्र कम और अनुभव न होने से आय, परिवार के खाने-पीने और कपड़े, पढ़ाई आदि जरुरी खर्चे के लिए भी काफी नहीं होती थी। हम सबको उम्मीद थी कि कुछ वर्षों में हमारे हालात सुधर जाएंगे। 

मैं खूबसूरत, ज़हीन लड़की थी। मैं जब 18 वर्ष की हुई तो अब्बू के समय से जिनसे हमारे पारिवारिक रिश्ते रहे थे, उनमें से एक रईस घर से मेरे लिए रिश्ता आया था। 

अम्मी खुश हुईं थीं कि चलो मलाला (मैं) तो पूर्व वाली रईसी में फिर जी पाएगी। 

तब यह तय कर लिया गया था कि उजैर से मेरा निकाह, मेरे 21 वर्ष होते ही किया जाएगा। 

यह वह वक्त था कि मेरे तन बदन में कुछ नई तरह की तमन्नाओं ने जगह बना ली थी। उजैर को लेकर मुझे सपने आने लगे थे। पढ़ने के लिए किताब मेरे सामने होती मगर मेरा ध्यान उजैर पर हो रहा होता था। 

मेरी कामनाएं होतीं कि उजैर आकर मुझे भींच ले। मेरे होंठो का रस चख ले। और भी न जाने क्या क्या, जिन्हें मुझे किसी से बताने में भी शर्म महसूस होती, वह सब भी। 

मुझे अपनी तमन्नाएं जब्त रख लेनी होती थी। उजैर के घरवाले पुराने ख्यालों के थे। निकाह तय तो किया गया था मगर उजैर और मुझे मिलने की इजाजत नहीं होती थी। हाँ, मोबाइल पर बात होती थी लेकिन इन होतीं बातों से, मेरा दिल अधिक बेकरार हो जाया करता था। मैं सोचती कि उजैर स्वयं को कैसे काबू करते होंगे। 

उजैर मुझे बिगड़ैल लड़की न मान लें, मैं अपनी ऐसी कामनाओं को अपने दिल में रख लेती थी। सब ठीक सा चल रहा था। मैं जैसे तैसे बी. एससी. के दूसरे वर्ष को पास कर, अंतिम वर्ष में आई थी। तब अपनी एक सखी के साथ, कॉलेज से लौटते हुए स्लिप हो गई स्कूटी से गिरी थी। सखी को तो अधिक चोट नहीं आई थी मगर मैं मुँह के बल एक पैने पत्थर पर गिरी थी। 

मैंने अपनी एक आँख खो दी थी। हमारी हैसियत नहीं थी। उजैर के वालिद-वालिदा ने अस्पताल में खड़े होकर, मेरा ऑपरेशन करवाया था। मुझे एक नकली आँख लगवा दी गई थी। हम सब उनकी उदारता से प्रभावित हुए थे। 

मैं दुखी रहने लगी थी। एक आँख खो देने एवं चेहरे की चोट से मेरा सुंदर सलोना चेहरा बिगड़ गया था। तब भी एक ठीक ठीक सुंदरता मुझमें बाकी रही थी। मेरा दुःख इसलिए अधिक हुआ था कि अब उजैर पूर्व की भांति, कॉल नहीं करता था। 

ऐसे अवसाद में पढ़ते हुए बी. एससी. पूर्ण हुई और मैं 21 की हुई थी। फिर जब अम्मी उजैर के घर जा रही थी तब मैं डर रही थी कि मालूम नहीं वहाँ क्या होता है। 

अम्मी के चेहरे पर पुत गई सफेदी से मुझे आभास हो गया था। फिर उन्होंने बड़े भाई को बताया था - 

सही तो कह रहे हैं वे लोग, खानदानी लोगों में उनका उठना बैठना है। ऐसी बहू जिसकी एक आँख नकली है को लेकर वे, उनमें कैसे घुल मिल सकेंगे। 

मुझे अपने तरफ देखते पाया तो अम्मी ने रुआँसी होकर बताया - मलाला, मलाल मत करना। उन लोगों ने मना किया है, हमें कोई और रिश्ता जरूर मिलेगा। 

यह सिर्फ सांत्वना के शब्द सिद्ध हुए थे। अनेकों कोशिशें की गईं, लेकिन मनचाहा रिश्ता फिर नहीं मिला था। 

अम्मी अब इस बात की खीझ, मुझ पर उतारने लगीं थीं। जिन्होंने अब तक मुझे बहुत लाड़ दुलार से रखा था, अब वे मुझे बुरी बुरी सुनाने लगीं थीं। घर खर्च में मदद करने के विचार से, मैंने उनकी इच्छा विरुद्ध सरकारी नौकरी के लिए आवेदन करने शुरू किए थे। विकलाँग कोटे (Handicapped quota) में मुझे एक विभाग में कंप्यूटर ऑपरेटर की नौकरी मिल गई थी। 

मैं ऑफिस जाती तो अम्मी मुझे हिजाब के लिए कहतीं थीं। मैं उनके सामने हिजाब में निकलती मगर रास्ते में उसे पर्स के हवाले कर देती थी। कार्यालय में मुझे, हिजाब में बैठकर काम करना ठीक नहीं लगता था। मैं कलर्ड ग्लास का चश्मा लगाने लगी थी। यह बात भी अम्मी को किसी ने चुगल दी थी। 

वे मुझे अप्रिय लगती बातें सुनातीं थीं। 

मैं हैरान सोचती थी कि जब एक हादसे की बदकिस्मती किसी को झेलने होती है तब उसे, परिवार और अन्य से संवेदना के व्यवहार की अपेक्षा एवं आवश्यकता होती है। जबकि ज़माने का चलन इससे उल्टा है। जो दया का पात्र होता है, उसी से लोग निर्दयी व्यवहार करते हैं। मेरे जो भाई बहन मुझे अप्पी अप्पी कह कर हर समय घेरे रहते थे। अब वे भी मेरी उपेक्षा कर देते थे। 

अब मेरे रिश्ते जिन लोगों की तरफ से आ रहे थे उनमें कोई मुझसे पंद्रह वर्ष अधिक होता और कोई विधुर होता था। 

मैं इन रिश्तों पर इंकार करती तो अम्मी कहती - जरा अपनी हैसियत भी समझ, एक आँख न होने की कमी वाली लड़की के लिए कोई बिना कमी वाले का रिश्ता नहीं आ सकता है। 

मैं कहती - कमी मुझे बर्दाश्त होगी मगर मैं 15-17 वर्ष बड़े आदमी से निकाह नहीं कर सकती। 

अम्मी कहती - मर्द, इस उम्र में भी पूर्ण होता है। 

मैं उनका इशारा समझती और स्पष्ट शब्दों में कहती - अम्मी मुझे निकाह सिर्फ सेक्स के लिए नहीं करना है। 

वे इसे मेरी बेशर्मी बताती और कहतीं - तेरी जुबान 20 हाथ की हो गई है। बहुत गंदा बोलने लगी है। 

मैं फिर कहती - शादी का मतलब सेक्स ही नहीं होता। मैं एक पीढ़ी पुराने आदमी से शादी नहीं कर सकती, उसके ख्याल पुराने होंगे। 

अम्मी चिढ़ते हुए कहतीं - तो नए ख्याल के लिए, क्या तू कौम बाहर शादी करेगी?

मैं कहती - अम्मी, चिंता मत कर, कौम में कोई नहीं मिला तो मैं शादी नहीं करुँगी। मैं शादी उससे करुँगी जो ज़िंदगी में, मेरी नौकरी के महत्व को समझे, मुझे बिना हिजाब घर से निकलने की इजाजत दे। 

अम्मी कहती - बुरा किया तुझे नौकरी की मंजूरी दी। तू बहुत बिगड़ गई है। कहीं ऑफिस में तेरा किसी से नैन मटक्का तो नहीं हो गया है। 

मैं अब चुप करती और सोचती, यह ऑफिस में काम करने वाली लड़की पर सबकी ऐसी शंका क्यों होती है। बदलते समय के अनुसार यदि मैं खुले मुँह और सिर, कहीं बाहर जाऊँ-आऊँ तो इसमें बिगड़ जाने वाली बात क्या है। 

समय बीतने के साथ मेरी बहनों एवं भाइयों की शादी होती गईं थीं। भाइयों की बेगमें आईं तो उन्होंने अपना हित, हमारे घर में साथ रहने में नहीं देखा था। वे अपने अपने शौहरों के साथ हमसे अलग हो गईं थीं। 

अब अम्मी, मुझे खरी खोटी सुनाती रहतीं मगर नापसंद बेटी अर्थात मेरे साथ, गुजर करना उनकी लाचारी थी। मैं अपने संघर्ष आत्मविश्वास से करना सीख रही थी। जब भाइयों और अम्मी ने, मेरे निकाह की कोशिशें ही छोड़ दीं तब मैं खुद ही शादी के विज्ञापन देकर कोशिश करने लगी थी। मैंने इनमें प्राथमिकता उन्हें लिखी जो मेरी जैसे ही किसी शारीरिक कमी से पीड़ित थे। मैं नहीं चाहती थी कि एक पूर्ण पुरुष का मैं साथ करूं, जिसे मेरी कमी का खेद और मुझ पर एहसान किए जाने का भाव हो। 

अंततः मुझे एक रिश्ता मिला था। यह आदमी शमीम, अनाथालय में पला, बड़ा हुआ था। शमीम जन्म से ही गूंगा-बहरा था। शमीम भी विकलाँग कोटे में मिली स्टेनो की नौकरी कर रहा था। 

मैंने अम्मी से इस निकाह के लिए इजाजत माँगी थी। वे शमीम में नुस्ख देख रहीं थीं। मुझे लग रहा था जब सभी बाकी बेटे-बेटियां चले गए थे तब वे मुझे पसंद नहीं करते हुए भी मेरे साथ रहना चाहतीं थीं। इसलिए अब उन्हें मेरा निकाह हो, यह विचार अच्छा नहीं लग रहा था। उन्होंने कहा - 

क्या, गजब अल्लाह बनाई जोड़ी होगी शौहर गूँगा बहरा और बीबी एक आँख वाली। 

ऐसी अजब गजब सी हो गई थी मेरी अम्मी। बिरली ही कोई बेटियां होंगी, जिनकी माँ इतना बुरा कहतीं होंगी। 

मुझे लगता था कि उनकी दृष्टि में, मेरे से 15-17 बड़े आदमी से, मेरे निकाह में कोई नुस्ख नहीं था। 

मैंने उनकी अनसुनी कर दी थी। मैं सोच रही थी 35 की हो चुकीं हूँ। अब मैं कुछ में, और अन्य कुछ में अम्मी दोष निकालतीं रहीं तो मुझे ऐसे कुँवारी ही रह जाना पड़ेगा। 

मैंने शमीम से कोर्ट में विवाह कर लिया था। शमीम और मैं, हम दोनों ही एक दूसरे की कमी को अनदेखा करके साथ रहने लगे थे। 

मेरे निकाह की किसी को चिंता नहीं थी। मैंने अपनी पहल से, शादी की तो भाई, बहनों एवं अम्मी को बुरा लग गया था। वर्षों ना कभी उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया और ना ही वे मुझसे मिलने आए थे। 

हमारे दो बेटे हुए उनके जन्म पर दी दावत में भी इनमें से कोई नहीं आया था। अब 12 वर्ष बीते थे। हम दोनों कमा रहे थे। धीरे धीरे हमने अपना घर और सभी जरूरत के सुविधा साधन कर लिए थे। एक अपनी कार भी ले ली थी। 

एक दिन बड़ा भाई, मेरे ऑफिस में आया था। उसने कहा - अम्मी की तबियत अच्छी नहीं है। तुम्हें याद करतीं हैं। 

मैं शमीम को साथ लेकर अम्मी से मिलने गई थी। वे व्हील चेयर पर बैठीं थीं। मैंने पूछा - आपको यह क्या हो गया?

अम्मी ने बताया - सीढियाँ उतरते हुए गिर गई थी। कूल्हे के नीचे की हड्डी टूट गई थी। ऑपरेशन खर्चीला था, अतः प्लास्टर बाँधा गया था। इससे हड्डी जुड़ गई है, मगर मजबूती नहीं लगती। अब व्हील चेयर पर काम करतीं हूँ। 

मैंने पूछा - आपकी खिदमत के लिए भाई, बहन में से कौन आता है? 

अम्मी ने कहा - सभी ने अस्पताल में थोड़ी थोड़ी देखरेख तो की थी। अब जब मैं घर आ गई हूँ, कोई नहीं आता है। मलाला, क्या तुम मेरे साथ रहने आ सकती हो?

मैंने शमीम को देखा था। वह भावों से कुछ कुछ समझ रहे थे। मैंने अम्मी से कहा - मेरा तो संभव नहीं होगा, आप चाहो तो आप चलो मेरे साथ, मैं अपने घर में खुद आपका कुछ करुँगी, कुछ की व्यवस्था का दूँगी। 

अम्मी मेरे साथ आ गईं थीं। यह अच्छा था कि शमीम सुन-बोल नहीं सकते थे। अम्मी पहले से भी अधिक बुरा बोलने लगीं थीं। उन्हें इसकी फ़िक्र भी नहीं थी कि उनकी सेवा करने वाली मैं, मुझे बुरा लग सकता है। 

मैं बुरा नहीं मानती थी। मुझे पता था कि जब कोई मुश्किल में होता है, उसे नफरत नहीं, प्यार की जरूरत होती है। वे मेरी अम्मी थीं। उनके बचपन के लाड़-दुलार को याद करते हुए मैं उनसे अच्छा बोला करती और व्यवहार किया करती थी। 

दो वर्ष में अम्मी, अल्लाह को प्यारी हो गईं। 

पुश्तैनी घर पर कब्जा करने मेरे शेष भाई-बहनों में होड़ लग गई थी। अंततः उसे बेचकर, चारों ने आपस में पैसा बाँट लिया था। मैंने कोई दावा नहीं किया था। इससे मैं चारों को भली लगने लगी थी। 

अब वे सभी आपस में तो शिकवे शिकायत रखते हैं मगर मुझे अप्पी अप्पी कहते नहीं थकते हैं। 

मेरे जीवन में समय ने दो बार पलटा खाया है। आज मैं पचास वर्ष की हूँ, शमीम की दिलपसंद बेगम हूँ। अपने बच्चों को प्यारी मम्मा और ऑफिस की सहकर्मिंयों की - “हमदर्द मलाला मैम”। 

मुझे खुले विचार वाला अनाथ गूँगा, बहरा पति शमीम बेहतर लगता है। वह औरत होने का दंड मुझे मेरी उन्नति के मार्ग में अवरोध डालकर नहीं देता है।  


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational