ज़मीं
ज़मीं
ज़मीं को भी खुद पर गुररूर रहा होगा,
उसे भी खुद पर हैरानी हुई होगी,
जब पता चली होगी उसे अपनी हकीकत,
कि उसकी दुनिया स्थिर - सी रहेगी।
जिस तरह हम डर जाते हैं,
यह जानकर कि ज़िंदगी,
इस एक घर में गुज़ारनी है,
कि जैसा भी शरीर मिला है,
उसी में ज़िन्दगी काटनी है।
नहीं सीख पाते हम,
इस ज़मीं से,
कि स्थिरता भी एक कला है,
वो स्थिर रहकर ही खुद में,
हीरे तराशती है।
वो खुशियाँ ढूँढती है,
अपने भीतर,
भटके हुए राही को,
राह भी दिखलाती है।
गर सीख सकें इस ज़मीं से हम,
स्थिर रहना -
फिर ज्ञात होगा हमें,
कि खुशियाँ तराशने कहीं नहीं जाना।
स्थिरता में ही धैर्य समाया है,
धैर्य से ही एक सफ़ल इतिहास बन पाया है,
कि ज़मीं ने भी अपना गुरूर त्यागा है,
धैर्य तो अब इतना है उसमें,
कि आकाश भी उसके आगे,
सर झुकाता है।।