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Deepshikha Srivastava

Drama

5.0  

Deepshikha Srivastava

Drama

यक्ष प्रश्न

यक्ष प्रश्न

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मैं अचंभित निरुत्तर..

क्या दूँ तुम्हें मैं उत्तर !

तुम्हारे यक्ष प्रश्न का,

कि तुम कौन हो ?


तो सुनो-

मैं हूँ जिंदगी का मौन

तुम कहते हो-

तुमने कोशिश की,

मुझे समझने की

पर तुम क्या जानो

मैं हूँ एक अनबुझी पहेली,


कभी खुद की दुश्मन

कभी खुद की सहेली

मैंने भी तुम्हारी ही तरह

कुछ सपने बुने थे,


हजारों में से कुछ

अपने चुने थे...

पर यह आघात

मुझे खला है,


उन्हीं अपनों ने ही

मुझे छला है

हाँ तब मैं एक

प्रेयसी थी,


अब आगे कहती हूँ सुनो....

क्या बोलूँ

शर्मिंदा हूँ...

मेरी ममता को भी

तुमसे ही गिला है,


मेरी ही छाया में

न जाने कैसे..

वह पतित पला है

जिसने मेरे स्त्रीत्व को

अपने अहम से

चुटकी में मला है..


मुझे तो है

इस बात का रोष

किसे दूँ मैं

इसका दोष,


मैंने तो न दिए थे

उसे ऐसे संस्कार

कि मेरे ही लहू से

मेरी ही अस्मिता को

वह कर दे तार-तार !


फिर भी चाहते हो

तुम्हारी हर खुशी में

मैं मुस्कुराती रहूँ..

तुम्हारी धड़कनों में

गुनगुनाती रहूँ..


तुम्हारे हर ख्वाब

सजाती रहूँ

हर कदम दर कदम

सर झुकाती रहूँ ?


तो सुनो-

क्या कभी तुमने सोचा है

मेरे बिना तुम हो क्या ?

असंभव, अकल्पनीय

और

एक अधूरा ख्वाब हो तुम।


मेरा कहा मानो,

संभल जाओ !

अभी भी वक्त है

बचाना चाहते हो

गर अपने अस्तित्व को

तो छोड़ दो

अपने निरर्थक दंभ को

और पहचानो !


अपने सच्चे पुरुषत्व को....

मान से मान मिलता

मिलता प्रेम से प्रेम है

प्रेम में ही...

जीवन की व्यापकता है !


और प्रेम ही..

जीवन की सार्थकता है !

प्रेम में ही..

जीवन की अनंतता है !

और प्रेम ही...

जीवन की पूर्णता है !


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