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Sugan Godha

Abstract

4.9  

Sugan Godha

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ये सरहदें

ये सरहदें

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टुकड़ों में बांट दिया जिसने ,

हद्द से बड़ी हैं ये सरहदें !

जमीं का किया सौदा कभी ,

तो आसमाँ को भी बांट दिया !!

हर हद्द से गुजर जाती है क्यूँ ,

अनचाही ये सरहदें !

दिलों पर चल जाती हैं छुरी ,

जब खींचती हैं सरहदें !!

न जाने क्या क्या बांटेगी ,

अनजानी ये सरहदें !

नदिया-समुद्र ,धरती-अम्बर

तराजू में सब पड़े हैं ,

बचपन के खेल खेले साथ !

उन घरौंदों को भी उजाड़ती हैं ,

मन मानी ये सरहदें !!

न वक़्त आ जाए ऐसा की ,

परिंदों को मोड़ दे !

पवन पर कर अधिकार ,

छीन ले साँसों की भी आजादी !!

धर्म तो बंट चुके कब के ही ,

धर्मों ने देश भी बाँट दिए !

इंसानियत मिटने से पहले ,

तोड़ दो बेगानी ये सरहदें !!



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