ये दुनियाँ का मेला
ये दुनियाँ का मेला
जान पहचान की लंबी सीमायें
अपनेपन के लिये आज अकेली
कहने को तो है दुनियाँ का मेला
पर हर दिन तो हैं यहाँ अकेला।
थम जाते थके कदम राहों पर
लक्ष्य भोर की किरणों की खोजो में
थकी बाहें अभावों के बोझों से
दे देकर हाथ में थोड़े से उजाले
संघर्षों के अँधियारे में जीवन खेना है
जीना है क्योंकि ये दुनियाँ का मेला है।
राहों की थकन पीकर सूरज चला है सोने
चित्त बहलाने को न आती आँचल की छाँह कोई
दौड़ती रही नजरें चारों तरफ भीड़ चौराहे पर
देखती वीरानी मौन अँखियों ने ले अश्रु लाई
सब कुछ सौतेले से चिर-परिचित चेहरे हैं
साथ रहने को ये दुनियाँ का मेला है।
फैली है चँहुदिश धूप की गझिन चादर-सी
है कल्पना अर्थहीन घने कानन सी
चुभते हैं शूल व्यथा – वेदना के आँचल में
घायल हृदय हैं फूलों के सौंदर्य तन से
पुहुपों के घावों को कब किसने झेला है
रहने को साथ – साथ ये दुनियाँ का मेला है।