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Kiran Bala

Abstract

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Kiran Bala

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ये दो जल बिंदू

ये दो जल बिंदू

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ये दो जल बिंदु, न जाने

कब और क्यों छलक पड़ते हैं

अस्थिर से मुझको क्यों

कभी-कभी ये लगते हैं।


ये सिर्फ अश्रु धारा ही हैं

या फिर हैं कुछ और

क्या हैं ये पीड़ा के उद्भव

या फिर हैं चिर-शान्त मौन।


ये तो हैं दर्द का कोमल अहसास

ले आता है बीते दिन भी पास

युगों-युगों से चिर-स्थाई सा

दे जाता है सुख की आस।


नहीं सिर्फ पीड़ा के साथी

उन्माद में भी छलक पड़ते हैं

कभी-कभी बन जीवन के प्रेरक

नियत मंजिल तक ले चलते हैं।


कमजोर नहीं तुम इनको समझो

प्रलयकारी भी हो सकते हैं

कहीं बनते हैं घावों के मलहम

कहीं चिंगारी भी बन सकते हैं।


यदि न होते ये अश्रु तो

जीवन भाव-शून्य हो जाता

रंग न होता कोई जीवन में

बेजान सा ये जग होता।


फिर भी सोचती हूं, न जाने

कौन से उद्गम से निकल पड़ते हैं

ये दो जल बिंदु, न जाने

कब और क्यों छलक पड़ते हैं।


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