ये अंधी दौड़...
ये अंधी दौड़...
दस्तूर गजब है आज
इस अत्याधुनिक दुनिया की...
कभी इंसान की औकात
उसके कर्मों द्वारा
तय की जाती थी,
मगर ये
इक्कीसवीं सदी की
भीड़भाड़ में
'कागज़ी डिग्रियों' का ही
बोलबाला है सिर्फ यहाँ...
इंसान की ईमानदारी
अक्सर खो जाया करती है
गुमनामी के अंधेरों में...
और किसी 'लायक' इंसान की
सारी कायनात ही
नेस्तनाबूद हो जाती है
गद्दार वक्त की हेराफेरी
और धोखाधड़ी में...
ये अंधी दौड़
कब खत्म होगी...???
