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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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यादों का सिलसिला

यादों का सिलसिला

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चलचित्र की तरह आंखों के सामने से

गुजरता हुआ यादों का हुजूम,

ख़ौफ़ इतना जितना सम्भव था

नफरत इतनी जितनी सम्भव थी


साजिश ऐसी जैसे अपराध नहीं सरकार

सन्नाटा ऐसा जैसे मौसम में

मरघट की चुहलबाजी

और इन सबके बीच से गुजरता हुआ जीवन

श्वांस रोके खड़ें भाव


ठहरा हुआ समय

मन के किसी अदृश्य कोने में

जीने की ललक

उम्मीद सी अंकुरित हुयी


हालात अनुकूल हुये

और आज अभी अभी

आया हुआ पल

इतना ही खूबसरत लगा था तब


जैसे कि है

चलचित्र सी गुजरती हुयी यादें

दूर जा रही हैं समय का साथ साथ

और जीवन फुदकने लगा है

छलक रही हैं खुशियां


और हम रूबरू हैं जीवन के

क्या उपक्रम है ये जीवन भी

उत्तरों के समुन्दर जैसा

कितना अच्छा लग रहा है


इस समुन्दर में नहाते हुये

तुम भी होते तो

और अच्छा लगता।


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