व्यथा
व्यथा
अभी वक्त भारी है तो खुशी रूठी हुयी सी है,
पता तो चला जमाने की आबो हवा झूठी है
कश्ती समन्दर की दूरी कुछ भी नहीं
सैलाबों का सितम है ना मिलना मजबूरी है।
किधर से चली है ये हवा मनचली
दिन के उजले में भी आँख मिचौली सी है।
हँसी ठहर सी गयी कुछ पहर के लिए
ख्वाहिशें मन के पिंजरे में अधूरी सी है।
कभी तो छटेंगे दुख के काले बादल घने
हर उजला सा रंग सूरज की रोशनी सी है
तसल्ली तो कर लूं कौन अपना पराया है,
मीठे बोल सभी के नज़रें कातिल सी है।
बिन जख्मों के चुभन सी है जानों जिगर में
मन घबराया हुआ सा आँखें कतराई सी हैं।