व्याधियों की आग जलती
व्याधियों की आग जलती
व्याधियों की आग जलती
बैठता मन शांति खोकर
जा रहे कण रक्त के यूँ
पाँव से नित मार ठोकर।
हिल रहा है दुर्ग तन का
काल कोड़े मारता है
कर्म पथ अभिशप्त लगता
मीत शेखी झाड़ता है
पिस गया है घुन सरीखा
ढो रहा ज्यों बोझ नौकर।
दैत्य की भाषा कहे सुत
पीर देती यातनाएँ
शूल जख्मों को कुरेदे
नस दबाती कोशिकाएँ
दुश्मनों ने हिय शिला को
मृत किया जल में डुबोकर।
बीतता हर पल रुलाता
आयु अँधियारा बिखेरे
नित बिलखती ये कलम भी
चाह पर अक्षर उकेरे
जब चिता ने बाँह खोली
सो गए निश्चिंत होकर।।
