हवा
हवा
यह हवा डरी डरी ललाट चूमने लगी।
हो निशाचरी वही अकाल घूमने लगी।।
कर नशा नया नया चली निकल इधर-उधर।
अग्नि की तरह हुई प्रचंड झूमने लगी।।
हर लहर ठहर ठहर बढ़ी चली डगर डगर।
आज धैर्य तोड़ हो उचाट रूठने लगी।।
यह किरण प्रभात की हुई प्रकट उठी चमक।
चंड मंड धूप हो प्रवीण लूटने लगी।।
हो पवित्र ये धरा यही पिघल कहे हृदय।
फिर निशब्द भाव हो अधीर टूटने लगी।।
बाग से गुजर रही मटक मटक चली हवा।
छिन्न-भिन्न पुष्प हो सुगंध फूटने लगी।।
खुश नहीं मृदा यहांँ नए-नए सुधार से।
रूठ कर धरा बुरे प्रभाव पूछने लगी।।
