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आलोक कौशिक

Abstract

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आलोक कौशिक

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वतन के लिए

वतन के लिए

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कभी जुदाई लगती थी ज़हर 

अब फ़ासले ज़रूरी हैं

जीने के लिए।


दर्द तो होता है दिल में मगर 

हैं अब दूरियां लाज़मी 

अपनों के लिए।


छूट न पाएगी कभी वो डगर 

बढ़े हैं जिस पर क़दम 

वतन के लिए।


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