वरक़-ए-जिंदगी
वरक़-ए-जिंदगी
कह चुके हम उन्हें वो ख़्वाबों में न आए
दिल जला चुके बहुत अब नींद न जलाए
वरक़-ए-जिंदगी पर डाली है स्याही इस कदर
समझ नहीं आता कौन सा वरक़ दिखाए
और कौन सा छिपाए
मुसाफ़िर राह फिर ढूँढ लेंगे मंजिले फिर
तराशी जाएगी
फर्क यही रखेंगे अब न हो तुम जैसी खतायें
यूँ तो उतार भी रहे है अल्फ़ाजों में सिसकियाँ
क्या पता यूँ ही कोई नई दास्तान बन जाए
कब तक गुजरे लम्हा-लम्हा फुर्कत में
गर हो इनायत खुदा की तो इस नायाब जिंदगी को
थोड़ा और आज़माए