वरदान
वरदान
एक रक्त वर्णित रंग उभर आया है उस चद्दर पर, उठी है अभी-अभी एक मानुनि माहवारी के दाग ने जिसको महकाया है...
लज्जित नहीं, न शर्मसार है इसी रंग ने अबला को शक्ति का पर्याय बनाया है,
मान है बड़ा उसे अभिमान है एक जीव को जन्म देने दो जाँघो के बीच ईश्वर ने वह बनाया द्वार है..
बहती है हर माह उस द्वार से लाल दर्दीली गंगा जिसने स्त्री पर माँ बनने का आशीष बरसाया है, पेढू से उठते दर्द को महसूस करते चेहरा सकुचाया है..
फट रही पिंडलियों को सहलाते वह लिपटी है चद्दर से, रक्त के बोसे पर बिखरी परिवार की नज़रों को पचाते, अपना स्वाभिमान समझते चार दिन का सफ़र तय करते हंसकर हर काम करती है..
शिकवों की गुंजाइश नहीं रहने देती वंदनीय है स्त्री गले लगाकर घूमती है दु:ख भरे दिनों को,
उस रंग की आदी नारी कोख में एक जीव को पालने की अधिकारी जो ठहरी..
उलझी रही दुनिया अचारों को बचाने में, छूत-अछूत, पाप-पुण्य के फ़सानों में क्यूँ नहीं सोचा किसीने कि यह वरदान है, लड़कियों की लकीरों में लिखा हुआ ..।