वक़्त भी अजीब है
वक़्त भी अजीब है
वक़्त भी अजीब है,
पेहचान करा देता है
अपनों की और गैरो की।
कुछ मुश्किल वक़्त मैं
हाथ पकड़ कर रखते हैं
और कुछ साथ छोड़ देते हैं।
जानती थी मैं किसी को
जो मुकर गया था अपने वादों से
जैसे ही चंद खुशियों के लम्हो ने
उसके दरवाज़े पर दस्तक दी थी।
जानती थी मैं किसी को
जिसने साथ छोड़ दिया था उसका
जो शायद अपने भी हिस्से की
खुशियों की हांड़ी लेकर आयी थी।
जानती थी मैं किसी को
जिसने अपने घर की लक्ष्मी कहा था उसको
जिसने उसे राम का दर्जा दिया था
पर वह ही उसकी ज़िन्दगी का रावण बन बैठा।
जानती थी मैं किसी को
जिसने तारीकी की गेहराहियों मैं
उसको बेझिझक भेजा था
उसने ही तो घैर-इ-एहाम दिखाई थी।
जानती थी मैं किसी को
जिसे इनायत-इ-खुदा क्या मिली
वह छोड़ गया उसको
जिसने उसे रुतबा-इ-खुदा माना था।
