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shubhangi arvikar

Abstract

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shubhangi arvikar

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वक़्त

वक़्त

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दिन रात यूँ चलता रहता 

हम आप में ढलता रहता 

थम जाये चाहे कुछ भी 

वो भागता रहता हरदम 


लुका छुपी का खेल उसका 

फिर भी न कोई मेल उसका 

रेत सा फिसलता वो 

न शुरू हुआ न ख़तम 


गुज़र जाये ये बिन बतियाए 

दिखला दे हमें अपने पराए 

कभी लगाए चोट ये और 

कभी बन जाता है मरहम 


सुख दुःख की छाँव लपेटा 

हर राज़ को खुद में समेटा 

मुस्कुराते लोग नहीं पर 

मुस्कुराता है वो हरदम 


इस वक़्त की है शान निराली

हर चाल है इसकी सवाली 

घटता वो पल पल फिर भी

कीमत उसकी बढ़ती हरदम।


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