विस्तृत होना
विस्तृत होना
विस्तृत होना मनुष्य का स्वभाव है
इसे सीमित नहीं किया जा सकता।
इस विस्तार की दो दिशाएं है
पहला आधिपत्य स्थापित करना
दूसरा समर्पित होना
पहले में विद्रोह की संभावना है
आजकल दुनिया मनुष्य के
इसी दिशा का दंश झेल रही है।
दूसरा समर्पण की जो दिशा है
वो भारत की सभ्यता का मूल तत्व है
इसमें जहां मनुष्य समर्पित होता है
वो परिवेश, या आदमी
उसी रंग में सहजता से रंग उठता है
जो समर्पित हुआ है।
आजकल भारत या मनुष्य
पहले के प्रभाव के बीच भी
अपने को समर्पित कर रहा है
यहीं साकार होती रही है
दुनिया को एक परिवार समझने की दृष्टि।
हम समर्पण के रास्ते पर
चलें न चलें
लेकिन वसुधैव कुटुंबकम् के
आकर्षण को कम नहीं कर सकते
क्योंकि यही हमारा पता है।