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Surendra kumar singh

Romance

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Surendra kumar singh

Romance

विश्वास है

विश्वास है

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विश्वास है अटूट विश्वास है

तुममें, हमारा

कभी कभी लगता है

रूह हूँ मैं और शरीर हो तुम

कभी लगता है 

रूह हो तुम और शरीर हूँ मैं

पर इस उलझन का

विश्वास से कोई रिश्ता बन नहीं पाता

एक पहाड़ की तरह

स्थिर रहता है मेरा विश्वास तुममें।

आंखे बंद करूँ तो

दिखते हो मुस्कराते हुये

अपने हाथ से मेरा सहलाते हुये

कभी मेरी पीठ थपथपाते हुये

और आंखें खुलती हैं तो

दिखता है तुम्हारा ही जलवा

हवा में,पानी मे

आकाश में,पृथ्वी पर

और तुम्हारी तरह मैं भी

मुस्करा उठता हूँ

और डूब जाता हूँ

तुममें मेरे विश्वास के

अजनबियत में

और तब कभी कभी

मुझे लगता है

कोई मुझे देख नहीं पाता है

या यूं गुजर रहे है लोग

मेरे पास से मुझसे दूर

अपनी अपनी ब्यस्तताओं में

मान्यताओं में

हमारे तुम्हारे सच से बेखबर।


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