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Uma Vaishnav

Abstract

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Uma Vaishnav

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विरह

विरह

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230


चंचल चितवन चहुँ ओर निहारे,

तक तक राह अब हम भी हारे, 


नयनों को सुजे नहीं कुछ और,

बड़ी सुहानी उपवन हैं चहुँ ओर,


विरह की आग अब बढ़ती जाए,

कुछ जानूँ ना कब प्रीतम आए,


 गर्दन को डंडी का मिला सहारा, 

धरा - गगन चहुँ ओर मैंने निहारा,


 घर से मैं निकली होते ही भोर, 

 संग में लेकर ये भेड़ और ढोर, 


मन की उदासी कम नहीं होती, 

प्रीतम की याद में पल पल रोती, 


विरह की बेला कटती नहीं काटे, 

 अपना दुख हम किसको बाँटे, 


उमा चित्र में मन के भाव पिरोये, 

मन की व्याख्या किसी से ना होये। 


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