विधवा की वेदना
विधवा की वेदना
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सामाजिक बंधनों से बंधी
वह नारी मायूस रहती थी
हर पल हर दिन जीवन में
सभी के लिए खुशियों का
सूर्योदय होता था,
पर उस विधवा के लिए तो
दिन का उजाला भी
अँधकार के समान था।
जब से पति अकाल ही
काल का ग्रास बने हैं
उस वक्त से मानों
जी रही है किसी तरह,
साँस शेष है
जिंदगी से कोई आस नहीं
प्रिय बिन जीवन जीए भी तो
कैसे जीए।
भला बुरा सुनने वाला
अब कौन शेष है
बच्चे भी तो
खुद में मस्त हैं
व्यस्त हैं।
श्रृंगार किए वर्षों हुए
चाहती है वो
पहने चूड़ियाँ हाथों में
चाहती है माथे पर
सजाए बिंदियाँ,
चाहती है पैरों में
फिर पायल से पहने
चाहती है रंग बिरंगी
साड़ियों के जोड़े
फिर से पहने।
चाहती है माँग में
फिर से सिंदूर सजाए
पर वह तो मजबूर है
सामाजिक जंजीरों से,
बंधे हैं पंख उसके
हाँ समाज उसे
विधवा कहता है।