ऊष्मा का विस्तार
ऊष्मा का विस्तार
बोलो ना...रे मन
क्या कर सकते हो तुम
अपनी उष्मा का विस्तार ?
देखो न !
इस धरती पर
मात्र ठण्ढ का
साम्राज्य हो गया है।
ज्ञान, प्रेम, सम्बन्ध, संवेदना-
सबकी उष्मा
समाप्त हो चली है।
और तो और
अब संघर्षों में भी
उष्मा का अभाव है,
आस्था और विश्वास पर
शीत का ही प्रभाव है।
तुम तो हो न !
ऋतु चक्र के कारक।
कर रहे हो परिवर्तन
मिट्टी के कण कण में
भर रहे हो ऊर्जा
ताकि हो नव सृजन।
वसंत बिताकर अब
ग्रीष्म लाओगे,
पूरी धरा को तपाओगे।
तो क्या
इनमें भी
नहीं भर सकते !
थोड़ी उष्मा?
कहो न !