उम्मीदों का बोझ और बचपन
उम्मीदों का बोझ और बचपन
हँसते खेलते बचपन में क्यों पसरा ये सन्नाटा है,
छोटे से स्क्रीन से ही अब होता हेलो टाटा है।
उम्मीदों के बोझ के आगे झुक गया प्यारा बचपन,
नहीं मासूमियत, छायी उदासी खो गया देखो बचपन।
टेक्नोलॉजी की होड़ ने सोख ली सारी निश्छलता,
माउस और की-बोर्ड में बचपन सारा है गुज़रता।
अच्छी मेरिट और नंबरों की होती नित दिन मारा-मारी।
मोहक मुस्कानों के ऊपर भारी पड़ गई ज़िम्मेदारी।
आज के बचपन को ढँक रखा है डिजिटल दुनिया ने,
चैटिंग, इन्टरनेट गेमिंग, लाइक्स और कमेंट्स ने।
जैसे जैसे टेक्नोलोजी बढ़ती वैसे दुनिया सिमट रही है
बच्चे भी न रहा अछूता, दुनिया उनकी भी बदल रही है।
प्रकृति की गोद छोड़ वो खेलें गेम मोबाइल में।
खोता जा रहा प्यारा बचपन गेमिंग और काॅम्पटीशन में।
नैतिक मूल्यों को सिखाने वाला
संयुक्त परिवार तो आज स्वप्न मात्र है।
बच्चे इनसे वंचित रह जाते क्योंकि,
जीवन मूल्यों की शिक्षा अब आउटडेटेड फ़ैशन है।
माँ बाप भी इतनी उम्मीदें रखते हैं
जिसका कोई अंत नहीं।
ख़ुद के देखे सपने पूरे करने हैं
हम नहीं तो बच्चे ही सही।
उनको पूरा करते करते
बचपन खोया जाता है।
बच्चे भी कब बड़े हो गये
पता नहीं चल पाता है ।
बच्चों को बच्चे रहने दें
उम्मीदों का बोझ न डालें।
रहने दें इनकी निश्छलता को
औरों से इनको न तौले।
