उल्लाला..
उल्लाला..
अनुपम अविरल गंगा यहाॅं,
हिय से निकली वंदना।
धरती धुलती मनभावनी,
लगती पावन चंदना।।
भार्या बाबुल नित खोजती,
सहती नित सहधर्मिणी।
तनया तजकर वह जिन्दगी,
कर्म करे अब कर्मिणी।।
जीवन जलती बाती बने,
मानवता का तेल हो।
मन का मन से बस प्रेम हो,
मन में सबका मेल हो।।
पाहन छलती शैवालिनी,
कल-कल करती नाद है।
सदियों से सहती गंदगी,
अंतस में उन्माद है।।
मन खग बन उड़ना चाहता,
डरता छलिया जाल से।
चिड़िया मरती नित-नित जहॉं,
सहमे खग के हाल से।।